Sunday, July 7, 2019


सिक्के की कहानी
                    
     मानव की उत्पत्ति एवं विकास के साथ ही उसकी आवश्यकताओं का भी उद्भव हुआ। प्रारंभिक पारिवारिक इकाई के साथ-साथ सामुदायिक कबीलों का स्वरूप भी विकास का प्रक्रिया का हिस्सा रहा है। इसी प्रकार जब-जब भिन्न-भिन्न लोग परिवार तथा कबीले अलग-अलग सामुदायों के सम्पर्क में आए और उनकी परस्पर आवश्यकताएँ बढ़ने लगी तब विभिन्न वस्तुओं का आदान-प्रदान उनके लिए एक अनिवार्य आवश्यकता बन गई होगी और इसी पारस्परिक आदान-प्रदान कालांतर में व्यापार का स्वरूप भी धारण किया होगा। किसी एक वस्तु को लेकर सामने वाले से दूसरी वस्तु लेने की यह पारस्परिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया ही विनिमय कहलाती है। विनिमय की यह प्रथा ही भारतीय सिक्कों के जन्म के प्राथमिक सीढ़ी है।
विनिमय की प्रक्रिया में यह सामान्य नियम था कि लेने वाले और देने वाले की आवश्यकताएँ एक-दूसरे के अनुरूप हो ताकि वांछित वस्तुओं को एक-दूसरे के बदले में बदला जा सके। किन्तु अनेक बार यह संभव नहीं होता था। कुछ वस्तुएँ ऐसी भी होती थी जिन्हें ना तो काटा जा सकता था ना ही तोड़ा जा सकता था अर्थात् समूचे रूप में उनकी अदला-बदली (विनिमय) नहीं हो सकती थी। यदि किसी को आनाज के बदले आनाज चाहिए तो यह संभव था किन्तु कोई गाय के बदले हाथी या बकरी के बदले गाय अथवा अनाज के बदले हाथी आदि विनिमय करना चाहता था तो विनिमय पर अर्थात कितनी मात्रा के बदले इच्छित वस्तु प्रदान की जाए अथवा विभाजित की जाने जैसी व्यावहारिक समस्याएँ उत्पन्न हो गई। इसी प्रकार की कठिनाईयों को दूर करने के लिए एक निश्चित वस्तु के माध्यम से आदान-प्रदान करने की बात सामने आयी और यह आदान-प्रदान परम्परा लम्बे समय तक दुनिया की प्राचीन सभ्यताओं में चलती रही।
        विकास के साथ-साथ किसी वस्तु का मूल्य कम और किसी का ज्यादा आंका जाने लगा होगा। इसी प्रकार ठोस एवं तरल वस्तुओं के मापन की इकाईयॉं भी बनने लगी। प्रागैतिहासिक युग में जब पत्थर के औजारों का बोल-बाला था तब सम्भव है कि वस्तुओं के बदले मांस-चमड़े तथा अश्मोपकरण याने की पत्थर के औज़ार उनके विनिमय का साधन रहे होंगे। पशुपालक समाज में उनके पशु, गाय, बैल, भेड़ आदि भी महत्वपूर्ण थे इसीलिए वे ही मूल्यावन इकाई बने।
 वैदिक साहित्य से यह प्रमाणित भी होता है कि गायों का विनिमय के रूप में प्रयोग किया जाता था। इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण इन्द्र की  प्रतिमा को लेकर है जिसे एक व्यक्ति दस हजार गायों को देने पर भी बेचने को तैयार नहीं होता है। पशुओं को विनिमय की इकाई के रूप में प्रयोग करने पर अनेक समस्याएं सामने आयी क्योंकि उनका विनिमय मूल्य स्थिर नहीं होता था, दूध देना बंद करने पर, बीमार होने पर अथवा मृत्यु होने पर वे अमूल्य हो जाती थी और अपने से कम मूल्य वाली वस्तुओं से उनका विनिमय भी नहीं हो पाता था। विनिमय के रूप में धातुओं का प्रचलन कब कहॉं पर पहली बार हुआ यह निश्चित रूप से बता पाना संभव नहीं है किन्तु जैसे-जैसे विकास की प्रक्रिया बढ़ती गई मनुष्य ने धातुओं के महत्व पहचानना सीखा और धातुएँ उन्हें अधिक सुविधाजनक लगी होगी क्योंकि उन्हें वांछित आकार-प्रकार में काटना- ढालना आसान था साथ ही  फिर अलग-अलग धातुओं का मूल्य भी अलग-अलग था। किन्तु प्रायः उन्हीं धातुओं के सिक्के बनाए गए जो कि प्रमुखता से उपलब्ध थी। प्रायः सिक्कों के लिए तांबा, लोहा, जस्ता, सीसा, चांदी तथा सोने का प्रयोग किया गया। आरंभिक रूप में धातुओं को निश्चित वजन में तौलकर आदान-प्रदान करने के लिए एक इकाई की आवश्यकता हुई जिसमें कि निश्चित भार के साथ इसका मूल्य निर्धारित हो सके इसके लिए हमारे देश में बीजो का प्रयोग किया गया जिसे हम लोग रत्ती के नाम से जानते हैं। वैदिक साहित्य में यह कृष्णल के नाम से उल्लेखित हुआ है। इसके अतिरिक्त यव (जौ), तंदुल (चावल), माष (दाल) तथा कौड़ी आदि बीजों का जो पूर्व में विनिमय के रूप प्रयुक्त होते थे उनका कालान्तर में तौल के रूप में प्रयोग होने लगा। वर्तमान में भी तोला का प्रयोग भारमान तथा तराजू के रूप में तुला ही है।     
        वजन की इकाई निश्चित होने के बाद धातु खण्डों को भिन्न रूपों में धातु खंड, पत्र, छल्ले आदि के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। किन्तु इनकी शुद्धता तथा सर्वमान्यता संदहास्पद होने के कारण इनके प्रमाणीकरण की आवश्कता महसूस होने लगी इसलिए धातुखण्डों को निश्चित वजन के साथ लांछित (चिन्हीकरण) किया जाने लगा। इस प्रकार सिक्कों के विकास के तीन चरण दृष्टिगोचर होते हैं। प्रथम चरण वह जब विनिमय के रूप में धातुओं का आदान-प्रदान किया जाने लगा जिसे भारतीय साहित्य में पण्य/पण नाम से जाना जाता है। द्वितीय चरण में धातु के निश्चित वजन वाले गोल अथवा अन्य आकार प्रकार के धातु पिण्ड जिन्हें हिरण्य पिण्ड कहा गया। तृतीय और अंतिम चरण वह था जब धातुओं चिन्हांकित कर प्रचलन में लाया गया जिन्हें सिक्का (Coin) कहा जा सकता था।
        हमारे देश में आहत सिक्के प्राचीनतम भारतीय सिक्कों के रूप में स्वीकार किए जाते हैं जिनका प्रचलन लगभग छठवीं-सातवीं सदी ईस्वी पूर्व से सीकरा किया जाता है हालांकि कतिपय विद्वानों ने सिकंदर के आक्रमण के पश्चात भारत मे सिक्कों के प्रचलन का मत भी व्यक्त किया है । किन्तु इसके पूर्व वैदिक साहित्य में उल्लिखित निष्क, हिरण्य आदि को भी मुद्रा के रूप में भी देखने की चेष्टा की जाती है।इसके अतिरिक्त बौद्ध साहित्य मे भी स्वयं भगवान बुद्ध के काल मे भी स्वर्ण मुद्राओं के व्यवहार का विवरण ज्ञात होता है।  आहत सिक्कों के प्रचलन से लेकर तांबे के ढालित सिक्के इण्डो-यूनानी सिक्के शक पहलव मौर्योत्तर सिक्कों से लेकर कुषाणकालीन, गुप्तकालीन तथा स्वर्ण, रजत- ताम्र मुद्रांए ना केवल भारतीय इतिहास की साक्षी है बल्कि उसमें एक पूर्वार विकास का क्रम दिखाई देता है।गुप्तोत्तर कालीन सिक्कों के अतिरिक्त सुदुर दक्षिण में भी यह परम्परा पायी जाती थी। इसी परम्परा का पालन सल्लतन कालीन शासकों तथा मुगलों ने भी किया। यह परम्परा स्वतंत्रा प्राप्ति तक निरंतर रूप से चलती रही जिसमे ब्रिटिश इंडिया के समय  जारी किए गए चाँदी के विक्टोरिया सिक्के कलनतर  कालांतर मे छल्ले वाले सिक्के तथा आज़ादी के बाद एक पैसा दो पैसा तथा पाँच और दस पैसे से लेकर एक आना, दो आना, चार आना (चवन्नी), अट्ठन्नी और सोलह आना याने की एक रूपये तक के विकास की कहानी यात्रा अत्यंत रोचक है। और इनमे से कतिपय सिक्के आज भी प्रचालन मे हैं आज भी जारी किए जाते हैं। हां ! यह अवश्य है कि विकास की प्रक्रिया के चलते अब हम ए.टी.एम कार्ड याने कि प्लास्टिक मनी का प्रयोग करने लगे हैं।
अतः उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश प्रायः विद्वानों द्वारा यह स्वीकार किया जाता है कि हमारे देश में विनिमय के रूप में धातु का प्रचलन लगभग 1000 ई.पू. तथा सिक्कों का उद्भव एवं विकास लगभग 700 ई.पू. में ही प्रारंभ हो गया था।



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