Sunday, July 7, 2019




तिरोहित होती प्रेम की भारतीय अवधारणा बाजपेयी


          रोम के सन्त वेलेण्टाइन ने आज से लगभग अठारह सौ वर्ष पहले  रोम के शासक क्लौडियस द्वितीय  द्वारा प्रतिबन्ध लगाए जाने के बावजूद एक प्रेमी-युगल को शरण दी थी और उसकी रक्षा की थी फलस्वरूप उन्हें प्राण-दंड दिया गया था। कालान्तर में उनके इस बलिदान को स्मरण करने के लिए उनके नाम पर वेलेण्टाइन डे मनाया जाने लगा। पश्चिम से आयातित और वर्तमान में लगभग पूरी दुनिया में प्रेम-दिवस के रूप में धूम मचाने वाले इस त्यौहार का यही संक्षिप्त इतिहास है।
      पश्चिम जैसी स्वच्छन्दता को अपनाने की आकांक्षा के चलते वेलेण्टाइन डे को शहरी युवा वर्ग ने हाथों-हाथ लिया और कुछ ही समय में देश भर मे इसका अखिल भारतीय नगरीय संस्करण तैयार हो गया। किन्तु इस स्वच्छन्दता ने परम्परागत भारतीय संस्कारों एवं शालीनता की सीमाओं को पार कर डाला और इस आवसर पर पर रेस्तराओं, समुद्र तटों तथा उद्यानों में प्रेम का सार्वजनिक उन्मुक्त प्रदर्शन शुरू हो गया या फिर एैसा माना जाए कि मार्केटिंग के दम पर थोपा जाने लगा है।
आज से दो दशक पूर्व वेलेन्टानडे की आहट भारत में सुनाई दी फिर धीरे-धीरे प्रचार माध्यमों ने हमें प्रसारित किया। बाजार ने हम अवसर पर विशेष रियायतें घोषित की इलेक्ट्रानिक चैनलों से अघोषित समझौता कर वेलेन्टाइन डे की कहानियां विशिष्ठ प्रेम संदेशों की पहियां चलाई जाने लगीं और उन पर भी इनामी राशि गिफ्ट वाउचर आदि दिए जाने लगे। होटलो रेस्टोरेंट में वेलेन्टाइन शामें आयोजित होने लगी और तो और प्रिंट मिडिया के अखबारों ने भी इस अवसर को भुनाने या यूं कहे अति आधुनिक दिखने के प्रयास में वेलेन्टाइन डे पर प्रेम संदेशों का प्रकाशन ही शुरू कर दिया। बाजार और प्रचार-प्रसार का गठजोड़ ने एक वेलेन्टाइन डे के अवसर पर एक एैसा आभा मण्डल निर्मित कर दिया कि आधुनिक युवा पीढ़ी ने इसे हाथों-हाथ लिया। और होटलों समुद्र तटों से लेकर बाग-बगीचों तक के स्थल उच्छश्रृंखल प्रेम प्रदर्शन के केन्द्र बिन्दु बन गए। सबसे रोचक तथ्य तो यह है कि यह बयार  शहरों तक ही सिमटी नहीं रही बल्कि अब तो कस्बानुमा गांवों में भी लुका-छिपी वाले वेलेन्टाइन डे मनाए जाने लगे हैं।  वेलेण्टाइन डे के आयोजन से ज्यादा उसमें हो रही स्वच्छदन्ता के नाम पर उच्छश्रृंखलता के कारण इसका विरोध करने वाला एक वर्ग भी खड़ा हो गया किन्तु विरोध के इन स्वरों ने इसको और अधिक प्रचार-प्रसार का अवसर उपलब्ध करा कर इसका दायरा और व्यापक कर दिया।
        यद्यपि भारतीय प्रेम की अवधारणा का रूपांकन तो पैराणिक काल से ही मिलने लगता है। जहां पर प्रेम शाश्वत एवं निष्काम होता है जिसके रूप को देखकर मन में त्याग की भावना जन्म लेती है ना कि कामुकता इसीलिए कालिदास ने भी लिखा है कि “ना रूपं इति पाप वृत्तये और कालान्तर मे कबीर ने भी “ढाई आखर प्रेम” को प्रभावी ढंग से परिभाषित किया है। प्रसंगवश यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि वेलेण्टाइन डे प्रेम को अभिव्यक्त करने का एक एकमात्र दिवस हो ऐसा नहीं है। यदि हम प्रेम-दिवस या इससे संबंधित तथ्यों पर गौर करें तो हमारे यहां प्रेम को समर्पित बसंतोत्सव एवं मदनोत्सव जैसे त्यौहारों का अस्तित्व तो पूर्व से ही ज्ञात है और भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रेम का क्षितिज इससे कहीं व्यापक दिखाई देता है।

भारतीय प्रेम समर्पण की कहानी है, बलिदान की गाथा है, और त्याग का समुच्चय है। जब हम इतिहास की तारीखों को पलटते हैं तो उसमें प्रेम की ऐसी अनुपम घटनायेँ दर्ज मिलती हैं, जिनका कहीं और मिलना मुश्किल है। हमारे यहां सावित्री इसी प्रेम के चलते यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राण वापस ले आती है। राजा नल और दमयन्ती की प्रेम कहानी पर आज भी ढेरो लोकगीत मिल जाते है। चक्रवर्ती सम्राट दुष्यन्त और शकुन्तला के प्रेम पर बेजोड़ महाकाव्य अभिज्ञान शकुन्तलम की रचना हो जाती है। यह उदाहरण तो एक बानगी मात्र है जबकि हमारे इतिहास में ऐसी अगनित घटनाएँ है जो भारतीय प्रेम को एक ऐसे शिखर पर स्थापित करती है जो कि प्रेम का एक मानक बिन्दु बन जाता है।

      यही नहीं मुगल बादशाह शाहजहॉं अपनी प्रिय रानी की याद में ताजमहल जैसी नायाब इमारत तामीर करा देता है जोकि दुनिया के सात अजूबों में से एक बन जाती है तथा आज भी प्रेम के शाश्वत प्रतीक के रूप में पूरी दुनिया उसका उदाहरण देती है। इसी प्रेम की वशीभूत हो मीरा भगवान कृष्ण से प्रेम करते-करते विष-पान कर लेती हैं तथा इसे समर्पण की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि वह विष भी अमृत में परिवर्तित हो जाता है। ग्वालियर नरेश मानसिंह तोमर गूजरी रानी मृगनयनी के लिए गूजरी महल जैसा महल खड़ा कर देते है। माण्डू के सुल्तान बाजबहादुर अपनी प्रेयसी रानी के लिए माण्डू में रूपमती महल मे ऐसे बुर्ज का निर्माण कराते हैं जहॉं से वह प्रतिदिन मां नर्मदा के दर्शन करने के बाद ही अन्य कार्य करती थी।
आपने कभी सोचा है कि प्रेम मे क्या कोई माँ अपने पुत्र के अतिरिक्त अतिरिक्त किसी और के पुत्र को इतना प्रेम कर सकती है कि उसके लिए अपने ही सामने पुत्र का बलिदान कर दे शायद नहीं ! किन्तु भारतीय इतिहास में पन्ना धाय द्वारा अपने स्वामी के पुत्र की प्राणों की रक्षा हेतु अपनी ही बेटे को न्योछावर कर देने की रोंगटे खड़ी कर देने वाली बलिदान गाथा भी दर्ज है। ऐसी अद्भुत प्रेम की मिसालें कहीं और नहीं मिलती है। बस जरूरत है हमारे इन ऐतिहासिक तथ्यों को आज के बाजार की और मीडिया की।
      वस्तुतः कहने का तात्पर्य यह है कि बाजारीकरण एवं विदेशी संस्थागत राशि की आवक ने अलग-अलग अवसरों पर बाजार गढ़ने का जो स्वरूप तैयार किया है उसमें वेलेण्टाइन डे एक महत्वपूर्ण बाजार बनकर उभरा है और इस बाजारीकरण ने ना केवल भारतीय प्रेम की शाश्वत परिभाषा को ही तिरोहित कर डाला बल्कि एक सन्त के बलिदान दिवस को भी चाकलेटी प्रेम के उन्मुक्त और स्वछन्द दिवस के रूप में बदल डाला।



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