Sunday, July 7, 2019


पंढरपुर की  वारी

      वारी और वारकरी ये दो शब्द सुनते ही मन मे अध्यात्म एवं रोमांच का ऐसा ज्वार उमड़ता है कि कदम अपने आप  किसी को भी पंढरपुर की वारी का वारकरी बनने को उत्साहित करने लगते हैं। और इसी उत्साह के चलते भगवान विट्ठल के दर्शन के लिए देश के कोने-कोने से पताका-दिंडी लेकर इस तीर्थस्थल पर पदयात्रा  कर लोग यहां एकत्रित होते हैं।वैसे तो देश मे अनेक यात्राएं भिन्न -भिन्न भागों में सम्पन्न होती हैं जिनका हजारों वर्षों का अपना इतिहास है जिन्होंने अलग-अलग भौगोलिक-सांस्कृतिक  भू-भागों को जोड़ने का काम किया है।
पंढरपुर की वारीअर्थात पंढरपुर में विराजमान भगवान विठोबाजिन्हें विट्ठल भी कहा जाता है के दर्शन की यात्रा है जो पैदल की जाती है तथा लगभग 22 दिनों में  आषाढ़ एकादशी के दिन पूर्ण होती है और इस यात्रा में सम्मिलित होने वाले यात्री वारकरी कहलाते हैं। भीमा नदी जिसे चन्द्रभागा के नाम से भी जाना जाता है,के के तट पर बसा पंढरपुर शोलापुर जिले में स्थित है। आषाढ़ का महीना  भगवान विट्ठल के दर्शन के लिए देश के विख्यात है इसी लिए इस तीर्थस्थल पर पैदल चल कर लोग यहां इकट्ठा होते हैं।
पंढरीनाथ की इस यात्रा की तासीर पढ़ने या देखने से नही बल्कि इसमें शामिल होकर ही समझी जा सकती है क्योंकि इसमें सम्मिलित  वारकरियों की संख्या आपकी कल्पना के बाहर होती है इसमें एक दो लाख नही बल्कि पांच से दस लाख लोग शामिल होते है।
यह यात्रा वस्तुतः एक धार्मिक यात्रा है जो कई स्थानों से प्रारम्भ होती है इनमे से अत्यंत महत्वपूर्ण एक यात्रा पुणे के समीप आळंदी से तथा दूसरी देहु से प्रारंभ होती है।और इन स्थानों का महत्व इस लिए भी है क्योंकि भक्त लोग आलंदी से महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर की तथा देहु से संत तुकाराम की पालकी के साथ यात्रा प्रारंभ करते हैं। और जब  यात्रा के 21वें दिन दोनों पालकियों का एक ही स्थान पर संगम होता है और लाखों वारकरी एकत्रित होते हैं तो ऐसे विहंगम  दृश्य का केवल अनुमान ही किया जा सकता है जब लाखों लोग एक साथ जय हरि विट्ठला तथा  रुख्माई का जय घोष करते हैं। इसके अतिरिक्त भी इस यात्रा मे कतिपय धार्मिक मान्यता प्राप्त पालकियाँ सम्मिलित होती हैं जिनमे पैठण से संत एकनाथ की पालकी तथा  सेगाँव से गजानन्द महाराज की पालकी को अत्यधिक आदर और सम्मान प्राप्त है। यात्रामार्ग मे सुनिश्चित अंतराल पर इनका पड़ाव होता है जहां से अन्य पालकियाँ –दिँडी इसमे मिलती जाती हैं और कारवां बढ़ता जाता है और इसके बाद आयोजन होता है रिंगन का जिसमे घोड़ों के साथ पालकियों को लेकर भक्त लोग दौड़ते हैं जिसका अवलोकन करना अपने आप मे आकरशक एवं रोचक होता है।
पंढरपुर की इस यात्रा की विशेषता है, उसकी वारीवारीअर्थात  ‘लगातार यात्रा करना।’ इस यात्रा में प्रति वर्ष पीढ़ी दर पीढ़ी शामिल होने वाले लोगों को वारकरीकहा जाता है। महत्वपूर्ण यह है कि इसमे सम्मिलित होने वाले लोगों का समूह इतना व्यापक और विशाल हो गया कि यह एक पृथक संप्रदाय बनकर  वारकरी संप्रदायकहलाने लगा । इस वारीका जब से आरंभ हुआ है, तब से पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के लोग हर साल वारी के लिए निकल पड़ते हैं। महाराष्ट्र में कई स्थानों पर वैष्णव संतों के निवास स्थान हैं या उनके समाधि स्थल हैं। ऐसे स्थानों से उन संतों की पालकी वारीके लिए प्रस्थान करती है। आषाढ़ी एकादशी के दिन पंढरपुर पहुंचने का उद्देश्य सामने रख कर, निश्चित अंतर के अनुसार हर पालकी का अपने सफर का कार्यक्रम तय होता है।
पालकी के साथ एक मुखिया होता है जिसकेमार्गदर्शन में समूह यानी दिंडी(कीर्तन/भजन मंडली) चलती है, जिसमें शामिल होते हैं वारकरी। सम्पूर्ण महाराष्ट्र में ईश्वर के सगुण-निर्गुण और बहुदेव उपासना की विविधता एकता में पिरोने  का कार्य किया है वारकरी संप्रदाय ने।
प्रतिवर्ष यात्रा मे शामिल होने वाले वारकरी को  कितना यात्रा , किस मार्ग से कितनी देर में करनी है , कब और कहां रुकना है, कहां भोजन करना है, हर चीज का  समय सालों-साल पीढ़ियों से निर्धारित है। शायद ही कोई इसे भूलता हो , एक पीढ़ी दर पीढ़ी अपने आप जानकारियाँ दायित्व स्थानातरित होते रहते हैंप्रत्येक वारकरी एक दिंडी का सदस्य होता है, जिसका एक निश्चित नंबर व चलने का निर्धारित क्रम तय होता है और यहाँ पर स्वतः अनुशासन दिखाई देता है किसी को सीखने की जरूरत नहीं होती है।
हर दिंडी का एक मुखिया होता है, जिसके पास खर्च हेतु वारकरी एक सामान्य हाथ खर्च की राशि जमा कर देते हैं।स्योन के रोज़मर्रा के उपयोग की वस्तुओं के आवागमन हेतु  एक वाहन भी साथ मे  होता है, जिस पर मुखिया अगले ठिकाने पर पहले ही से पहुंच कर आवशयक प्रबंध करता है, यही उसकी वारी है। और जमा पैसे का सारा व्यवहार बिलकुल शीशे की तरह साफ पारदर्शी आज तक ऐसी कोई खबर सुनने मे नहीं आई की किसी दिंडी का मुखिया पैसे लेकर गायब हो गया हो।
एक दिंडी यानी लगभग 100-250 लोगों का ऐसा परिवार, जो हमेशा एक-दूसरे के संपर्क में रहता है। वारी के दौरान प्यार आत्मीयता के साथ लाया नाश्ता लड्डू-चकली, चिवड़ा एक-दूसरे को खिलाकर  खुश होते हैं।प्रत्येक वारकरी की एकमात्र अभिलाषा यही होती है कि प्रभु, हमें मोक्ष न देते हुए फिर से मानव जन्म ही देना ताकि हर जन्म में विट्ठल की भक्ति का मौका मिल सकें।  
वैसे तो पंढरपुर की वारी तथा  वारकरी संप्रदाय प्राचीनता के संदर्भ हजारों वर्षों का अनुमान किया जाता है परंतु तेरहवीं शताब्दी से ज्ञात  पुंडरीक की कहानी के आलोक मे  लगभग  आठ सौ वर्षों यह यात्रा अनवरत जारी है। अपने माता-पिता की सेवा मे रत पुंडरीक के आग्रह पर भगवान  श्री विट्ठल अपने भक्त की दहलीज पर प्रतीक्षा में कमर पर हाथ धरे एक ही ईट पर आज भी खड़े हैं क्योंकि  भक्त ने उन्हे अभी तक बैठने के लिए ही नहीं कहा। और जब तक  भगवान विट्ठोबा खड़े हैं तब तक दिंडी-वारी दर्शनों के लिए आती रहेंगी और पूरा महाराष्ट्र जय हरि विट्ठला और जय रुखमाई के जयघोष गुंजायमान होता रहेगा।




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