एलोरा का कैलाश मंदिर- कला एवं स्थापत्य का अजूबा
कैलाश मंदिर,एलोरा (प्राचीन नाम
एलपुरा), पूरी दुनिया में अपने ढंग की अनूठी वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है जो कि महाराष्ट्र के
औरंगाबाद शहर से लगभग 30 किमी दूर खुल्दाबाद तालुका मे एलगंगा नमक स्थानीय नदी के
तट पर स्थित है। वस्तुतः यह एलोरा (स्थानीय नाम वेरुल) मे
निर्मित विश्व प्रसिद्ध जैन, बौद्ध तथा हिन्दू धर्म से संबन्धित 32 गुफाओं मे 16वें क्रमांक की गुफा
है और सबसे बड़ी है जिसमे भव्य कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूट वंश के शक्तिशाली नरेश कृष्ण (प्रथम)
(756-775ई0) द्वारा पूर्ण कराया गया था। इस मंदिर का प्राथमिक संदर्भ सर्वप्रथम दसवीं सदी ईस्वी के अरब के
भूगोलवेत्ता अल मसूदी के विवरण मे मिलता है। इसके पश्चात एक और महत्वपूर्ण विवरण
सुल्तान हसन गंगू बहमनी का है जिसने सन 1352 ईस्वी मे एलोरा गुफाओं का भ्रमण किया था उस दौरान वहाँ के पहुँच मार्ग की मरम्मत की गई थी। इसके अतिरिक्त
तेरहवीं-चौदहवी सदी ईस्वी के धार्मिक
ग्रन्थों, महनुभाव
संप्रदाय के महिमाभट द्वारा रचित लीलाचरित तथा संत ज्ञानेश्वर के अमृतानुभव, मे भी एलोरा गुफाओं का उल्लेख मिलता है।
वैसे
तो एलोरा मे निर्मित सभी शैलोत्खनित
गुफाएँ वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना हैं तथा इनकी कुल संख्या 100 से अधिक है परंतु
मुख्य रूप से पर्यटकों द्वारा यहाँ 34 गुफाओं का भ्रमण किया जाता है। ये गुफाएँ
एलोरा स्थित पहाड़ी की पश्चिमी दिशा खोदी गई हैं जो की लगभग 1.5 किमी क्षेत्र में विस्तृत
हैं बौद्ध,
ब्राह्मण तथा जैन समूहों में विभाजित हैं जिनका क्रम संख्या के अनुसार विवरण
निम्नानुसार है-
1. बौद्ध समूह
- गुफा क्रमांक 1-12 (लगभग 450-650 ईस्वी)
2. ब्राह्मण समूह
- गुफा क्रमांक 13-29 (लगभग
650-850 ईस्वी)
3. जैन समूह
- गुफा क्रमांक 30-34 (लगभग
800-1100 ईस्वी)
उपर
वर्णित इन गुफाओं मे भी कैलाश मंदिर(गुफा) का वास्तु शिल्प देखकर यह विश्वास ही
नहीं होता की इतना भव्य शिल्पशास्त्रीय सौंदर्ययुक्त देवालय किसी मानव के हाथों
द्वारा निर्मित किया गया होगा। अपनी बेजोड़ स्थापत्यकला एवं अभियांत्रिकीय कौशल और
अनुपम शिल्पकारी के कारण यह सम्पूर्ण विश्व में आकर्षण का केंद्र है। इसीलिए सन
1983 मे यूनेस्को द्वारा इसे विश्व धरोहर स्मारक का दर्जा प्रदान किया गया। यहाँ
डेक्कन बसाल्टिक ट्रेप पहाड़ को काटकर इस मंदिर
का निर्माण किया गया है। परंपरागत रूप से अलग हटकर पहाड़ से एक हिस्सा काट कर अलग
किया गया फिर उस एक ही शिलाखंड को तराशकर
कैलाश मंदिर का निर्माण किया गया। चूंकि भगवान शिव का निवास कैलाश पर्वत को
माना जाता है और यह मंदिर भी एक पर्वत मे खोद कर बनाया गया है, जिसमे रावण द्वरा कैलाशोत्तोलन
प्रतिमा का निर्माण भी किया गया है, संभवतः इसीलिए इस मंदिर का नामकरण कैलाश किया गया है।
समान्यतः
किसी भी मंदिर का निर्माण नीचे से ऊपर की ओर किया जाता है किन्तु दो मंजिला कैलाश
मंदिर का निर्माण ऊपर से नीचे की ओर किया गया है इसीलिए प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर ने कहा था कि
आदि कलश मग पाया अर्थात पहले कलश फिर अधिष्ठान। इस मंदिरका
निर्माण द्रविड़ शैली से प्रभावित दिखाई देता है और पट्ट्ड़कल स्थित विरूपाक्ष मंदिर से
यह कतिपय लक्षणो मे साम्यता साम्यता प्रदर्शित करता है। अपने
आकार-प्रकार मे यह लगभग 308 फीट लम्बा 188 फीट चौड़ा तथा 95 फीट ऊंचा है। यह मंदिर केवल एक
चट्टान को काटकर बनाया गया है। इसके निर्माण में अनुमानत: लगभग 50 हज़ार टन भार के
पत्थरों को चट्टान से काटकर हटाया गया।जिसके निर्माण मे लगभग 200 वर्ष का लंबा समय तथा
लगभग 50,000 से ज्यादा
मजदूरों का परिश्रम लगा था। इस कैलाश मंदिर (गुफा) को मुख्य रूप से चार भागो मे
विभाजित किया जा सकता-
1. प्रवेश द्वार- यह दक्षिण भारतीय शैली मे गोपुरम
के रूप मे निर्मित है जिसमे प्रवेश करते ही द्वारपाल तथा बायीं ओर गणेश,दायीं ओर महिषासुरमर्दिनी और
सामने गजाभिषिक्त लक्ष्मी का अंकन किया गया है।
2. नंदी मंडप-
यह खुला मंडप है जिसमे नंदी स्थापित है।
3. मुख्य मन्दिर- मुख्य मन्दिर एक ऊंचे अधिष्ठान पर
आँगन मे निर्मित है मन्दिर की बाह्यभित्ति की आधार पंक्तियों में हथियों का गजपीठ
के रूप मे उत्कीर्णन किया गया है क्योकि भार सहन करने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त
गजपीठ मानी जाती है। बाई तथा दायी ओर क्रमशः महाभारत एवं रामायण के कथानकों का
अंकन किया गया। इसके साथ ही दायीं ओर रावण द्वारा कैलाश पर्वत को अपनी दोनों
भुजाओं पर उठाने का सजीव चित्रण है।इसके
अतिरिक्त सिंहों के अनेक दृश्यों मे बाईं भित्ति पर बाल सिंह का मुकुरता दृश्य
अत्यंत रोचक है।किसी भी प्रस्तरखंड पर इतना जीवंत उत्कीर्णन दिखाई नहीं देता जिसमे
रावण द्वारा पर्वत उठाने पर पार्वती सहित शिवजी और अन्य गण एक तरफ गिरते हुये
दिखाई देते हैं। मंदिर मे प्रवेश एवं
निर्गम हेतु करने हेतु दोनों ओर सीढ़ियों का निर्माण किया गया है जिसके माध्यम हम नंदी
मंडप मे पहुँचते हैं। मुख्य मंदिर की वस्तु संयोजना मे क्रमशः नंदी मंडप, स्तंभधारित सभामंडप,अंतराल तथा गर्भगृह सम्मिलित है जिसमे विशाल शिवलिंग स्थापित है। गर्भगृह
की छत पर खिले हुये कमल पुष्प का अंकन है।
मन्दिर
का सभामंडप विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिसमे 16 अलंकृत स्तम्भ हैं जिन पर
मन-मोहक कीर्तिमुख उकेरे गए हैं। सभामंडप की छत के आंतरिक भाग मे भगवान शिव के
तांडव नृत्य की अद्भुत प्रतिमा स्थपति द्वारा उत्कीर्ण की गई है जो इसलिए
महत्वपूर्ण है कि उल्टा लेटकर अथवा बैठकर ऐसी सुंदर प्रतिमाओं का छत मे उसी स्थान
पर उत्कीर्णन असंभव सा कार्य है। इसी सभामंडप मे चित्रकला के कतिपय पुराने दृश्य
एवं शिव–पार्वती,ब्रह्मा,गणपती, नृसिंह आदि प्रतिमाएँ भी देखी जा सकती हैं।गर्भगृह का अपना पृथक से
भी प्रदक्षिणा पथ है जिस पर पाँच अन्य छोटे मंदिर हैं जिससे यह मंदिर पंचायतन शैली
मे निर्मित मंदिर प्रतीत होता है ।
4. बाह्य परिक्रमापथ- मुख्य मंदिर के पश्चात नीचे
आने पर मंदिर का बाह्य परिक्रमा पथ है जिसमे मंदिर के दोनों ओर एक-एक हस्ति तथा
अलंकृत ध्वज स्तम्भ स्थापित किए गए हैं। मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार से अंदर जाकर
यदि हम बाई ओर से इसका अवलोकन प्रारम्भ करें तो सबसे पहले हमे गंगा-यमुना तथा
सरस्वती की मानवाकर प्रतिमाएँ स्वतंत्र रूप
से स्थापित दिखाई हैं। इसके पश्चात इस पूरे परिक्रमापथ पर जो की मंदिर के तीनों ओर
विस्तारित है जिसमे एक से बढ़कर एक भगवान शिव, विष्णु ब्रह्मा, कृष्ण तथा
नृसिंह आदि से संबन्धित चमत्कृत कर देने वाली अद्भुत प्रतिमाओं की तीन वीथिकाएं निर्मित
हैं,जिसे संग्रहालय के प्राचीनतम उदाहरण के रूप मे भी
स्वीकार किया जा सकता। इस वीथिका मे उत्कीर्ण कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतिमाओं मे, शिव पार्वती की पाणिग्रहण,रावण द्वारा भगवान शिव को
दसवां सिर अर्पित करने का दृश्य,शिव-पार्वती का क्रीडा दृश्य
तथा भगवान विष्णु की नाभि से ब्रह्मा के उद्भव का दृश्य आदि अत्यंत आकर्षक एवं
मनमोहक हैं।
5. केंटीलीवर- मुख्य मंदिर के पृष्ठ भाग मे अखंड
चट्टान का लगभग लगभग 131 फीट लंबा
तथा लगभग 33 फीट चौड़ा हिस्सा केंटीलीवर, अभियांत्रिकी की
दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है जिस पर हजारों टन चट्टान का भार है और वह बिना
किसी आलंबन के बाहर लटका हुआ है। इससे प्रमाणित होता है की प्राचीन काल मे भारतीय स्थपति भार आधारित गणना तथा उसके अनुसार संरचनाओं के
निर्माण मे निपुण थे। ऐसा कौशल दुनिया की किसी भी मानव निर्मित गुफाओं मे दिखाई
नहीं देता।
यदि
हम कैलाश मंदिर की मूर्तिकला पर दृष्टिपात करें तो एलोरा का तत्कालीन स्थपति अपने कला-कौशल चमत्कृत कर देता है। एक ओर जहां भैरव
की मूर्ति जितनी भयाक्रांत करती है वहीं पार्वती की प्रतिमा उतनी ही सौम्य तथा स्नेहशील
लक्षित होती हैं। और शिव की तांडव प्रतिमा की भाव-भंगिमा एवं ऐसा आवेश जो संसार की
किसी अन्य पाषाण प्रतिमा मे दिखाई नहीं देता। इसके साथ ही शिव-पार्वती की कल्याण
सुंदरम प्रतिमा मे परिणय के मर्यादापूर्ण भावी सुख की कामना झलकती है विशेषकर पार्वत
-शिव जब एक दूसरे के हाथों को थमते है तब होने वाली अनुभूति को पार्वती अपने एक
पैर के अंगूठे से दूसरे पैर को दबाकर प्रदर्शित करना पाषाण मूर्तिशिल्प की
पराकाष्ठा है जो अन्यत्र अनुपलब्ध है। इसी प्रकार रावण के कैलाशोत्तोलन का
उत्कीर्णन पौरुषता को प्रदर्शित करता है।
उसकी भुजाएँ फैलकर कैलाश के आधारतल को जकड़ लेती हैं और इतने जोर से कंपित करती हैं
कि उमा-शिव के साथ ही कैलाश के अन्य जीव
भी भयग्रस्त एवं संत्रस्त हो जाते हैं परंतु फिर अचानक भगवान शिव अपने पैर के
अँगूठे से पर्वत को हल्के से दबाकर रावण के दर्प को चूर-.चूर कर देते हैं। महान
संस्कृत कवि कालिदास ने कुमारसंभव में रावण द्वारा कैलाश को कंपित कर कैलाश की संधियों
के बिखर जाने का जो विवरण दिया है उसे साकार करने में एलोरा के कलाकारों ने अपना
पूरी विशेषज्ञता लगा दी तथा अपनी निपुणता से
एलोरा की मूर्तिकला को पूरी दुनिया मे अतुलनीय बना दिया।और इसलिए इसे यदि कला
एवं स्थापत्य का अजूबा कहाजाए तो अकोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
अतः उक्त मंदिर के अवलोकन के पश्चात यह
निष्कर्ष निकलता है की एलोरा का कैलाश मंदिर
भारतीय अभियांत्रिकी-स्थापत्य एवं शिल्पकला की अद्वितीय कृति है जिसकी
तुलना दुनिया के किसी भी अन्य शिल्प से नहीं की जा सकती और शायद इसीलिए यूनेस्को
ने इसे पूरी दुनिया की अत्यंत महत्वपूर्ण धरोहर स्वीकार किया है।
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