Sunday, July 7, 2019


धार्मिक दिव्यता और शौर्यता का प्रतीक कुम्भ

       बहरहाल पुनः प्राचीन नाम के साथ प्रयागराज के संगम तट पर कुंभ मेला शुरू हो चुका है और इस समय इसकी भव्यता और दिव्यता दोनों ही चर्चा का विषय बने हुये हैं. नाम परिवर्तन के आकर्षण मे अथवा अर्धकुंभ की व्यापकता को बढ़ाने के लिए अब यह सर्वत्र कुम्भ मेले के रूप मे प्रचारित है, वैसे भी यूनेस्को ने वर्ष 2017 मे ही कुम्भ मेले को विश्व-धरोहर घोषित किया था, कुम्भ नामकरण के चलते जिसका लाभ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिल सकता है. मेले के प्रमुख आकर्षण, नागा साधु, माने जाने वाले सभी अखाड़े अपनी-अपनी पेशवाई करके कुंभ मेले में अपने-अपने शिविरों में पहुंच चुके हैं जिनकी झलक पहले शाही स्नान मे हम सभी देख चुके हैं.
      कुंभ मेले का प्रारम्भ कब और कैसे हुआ और किसने इसका आयोजन प्रारभ किया, इतिहास की पुस्तकों में इसका प्रमाण नहीं मिलता. किन्तु परंपरागत रूप से स्वीकार किया जाता है की देवासुर संग्राम मे समुद्र मंथन में निकले अमृत कलश  से कुछ बूंदें हरिद्वार, इलाहबाद, उज्जैन तथा नासिक में ही छलक कर गिरी थीं. इसीलिए इन चार स्थानों पर ही कुंभ मेला हर तीन बरस बाद लगता है और 12 साल बाद यह पुनः पहले स्थान पर वापस पहुंचता है.
       आरंभिक काल में कुंभ तथा अर्धकुंभ जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप बहुत स्पष्ट नहीं है किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से कतिपय अध्येता गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित आयोजन होने की बात करते हैं.उल्लेखनीय है कि कुम्भ आयोजन के ब्यवस्थित प्रमाण लगभग सातवीं सदी ईस्वी में सम्राट हर्षवर्धन के काल से प्राप्त होते हैं जिसका उल्लेख चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग ने किया था.  और इसे पूर्ण रूप से व्यवस्थित करने तथा कुम्भ के मुख्य आकर्षण कतिपय अखाड़ों की स्थापना तथा  स्नान आदि की परंपरा स्थापित करने का श्रेयजगतगुरु आदि शंकराचार्य को दिया जाता है. कुम्भ मेले का एक और विवरण मुग़लकालकालीन गज़ट खुलासातु-त-तारीख जो की  1665 में लिखा गया था में भी है.
    कुंभ मेला उपरोक्त चारों स्थानों मे से किस स्थान पर लगेगा यह राशियों की स्थिति के आधार पर तय होता है. कुंभ के लिए निर्धारित नियमानुसार जब माघ अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि में होते हैं और गुरू मेष मे होता है तब प्रयाग मे कुम्भ मेला होता है। विष्णु पुराण के अनुसार जब गुरु कुंभ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब हरिद्वार में कुंभ मेले का  
आयोजन होता है. इसी प्रकार  गुरु जब कुंभ राशि में प्रवेश करता है तब उज्जैन में कुंभ मेला आहूत होता हैऔर जब सूर्य एवं गुरू दोनों ही एक साथ सिंह राशि में होते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन नासिक (महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी के तट
आयोजित होता है.
  इसी प्रकार महाकुंभ के आयोजन के संदर्भ मे माना जाता है कि देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के 144 वर्ष के बराबर होता है और मान्यता है कि 144 वर्ष पश्चात स्वर्ग में भी कुंभ का आयोजन होता है और उसी अनुक्रम मे उस वर्ष पृथ्वी पर भी  महाकुंभ का अयोजन किया जाता है किन्तु महाकुंभ के लिए पृथ्वी पर एक मात्र निर्धारित स्थान प्रयाग है। इसीलिए प्रयाग मे होने वाले कुम्भ-अर्धकुंभ और स्नान पर्वों का सर्वाधिक महत्व स्वीकार कर शास्त्रो मे उसे प्रयागराज तीर्थ की उपमा प्रदान  की गई है.
    हमेशा से कुम्भ मेले का आकर्षण रहे साधु, संतों और सन्यासियों के इन अखाड़ों के केन्द्र में नागा साधु रहें हैं . ऐसा माना जाता है कि सनातन धर्म की रक्षा के उद्देश्य से नागा साधुओं की परम्परा प्रारम्भ हुई. कुम्भ के आरंभिक स्वरूप मे पहले दस अखाड़े ही थे, लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई और इस समय पन्द्रह अखाड़े अस्तित्व में हैं.जिनमे से सात शैव, तीन वैष्णव व तीन उदासीन संप्रदाय के अखाड़े हैं और इनमे भी हाल ही सम्मिलित किए गए परी तथा किन्नर अखाड़े प्रयाग कुम्भ मेले का विशेष आकर्षण बने हुये हैं. और जब अपनी पूरी साज –सज्जा के साथ इन अखाड़ों का जुलूस पारंपरिक शस्त्र प्रदर्शन के साथ प्रारम्भ होता है तो आवेग और जोश के साथ वीरता की लहर देखने वालों मे दौड़ जाती है तथा लोग टकटकी लगाए लगातार इस दृश्य को देखते रहतें हैं. यह धार्मिक दिव्यता और शौर्यता का ऐसा अद्भुत समन्वयकारी प्रदर्शन होता है की पूरी दुनिया से इसका साक्षी बनने के लिए करोड़ों लोग खिचें चले आते हैं. क्योंकि सम्पूर्ण विश्व मे किसी भी धार्मिक समागम के लिए एकत्रित होने वाली सर्वधिक भीड़ कुम्भ मेले मे ही एकत्रित होती है और इसीलिए कुम्भ मेला अपने आयोजन एवं नियोजन के लिए पूरी दुनिया के लिए आस्था एवं आकर्षण का केंद्र बना हुआ है.

(*लेखक प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व के विशेषज्ञ हैं. )


धार्मिक दिव्यता और शौर्यता का प्रतीक कुम्भ
*डॉ. शिवाकान्त बाजपेयी
बहरहाल पुनः प्राचीन नाम के साथ प्रयागराज के संगम तट पर कुंभ मेला शुरू हो चुका है और इस समय इसकी भव्यता और दिव्यता दोनों ही चर्चा का विषय बने हुये हैं. नाम परिवर्तन के आकर्षण मे अथवा अर्धकुंभ की व्यापकता को बढ़ाने के लिए अब यह सर्वत्र कुम्भ मेले के रूप मे प्रचारित है, वैसे भी यूनेस्को ने वर्ष 2017 मे ही कुम्भ मेले को विश्व-धरोहर घोषित किया था, कुम्भ नामकरण के चलते जिसका लाभ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिल सकता है. मेले के प्रमुख आकर्षण, नागा साधु, माने जाने वाले सभी अखाड़े अपनी-अपनी पेशवाई करके कुंभ मेले में अपने-अपने शिविरों में पहुंच चुके हैं जिनकी झलक पहले शाही स्नान मे हम सभी देख चुके हैं.
      कुंभ मेले का प्रारम्भ कब और कैसे हुआ और किसने इसका आयोजन प्रारभ किया, इतिहास की पुस्तकों में इसका प्रमाण नहीं मिलता. किन्तु परंपरागत रूप से स्वीकार किया जाता है की देवासुर संग्राम मे समुद्र मंथन में निकले अमृत कलश  से कुछ बूंदें हरिद्वार, इलाहबाद, उज्जैन तथा नासिक में ही छलक कर गिरी थीं. इसीलिए इन चार स्थानों पर ही कुंभ मेला हर तीन बरस बाद लगता है और 12 साल बाद यह पुनः पहले स्थान पर वापस पहुंचता है.
       आरंभिक काल में कुंभ तथा अर्धकुंभ जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप बहुत स्पष्ट नहीं है किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से कतिपय अध्येता गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित आयोजन होने की बात करते हैं.उल्लेखनीय है कि कुम्भ आयोजन के ब्यवस्थित प्रमाण लगभग सातवीं सदी ईस्वी में सम्राट हर्षवर्धन के काल से प्राप्त होते हैं जिसका उल्लेख चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग ने किया था.  और इसे पूर्ण रूप से व्यवस्थित करने तथा कुम्भ के मुख्य आकर्षण कतिपय अखाड़ों की स्थापना तथा  स्नान आदि की परंपरा स्थापित करने का श्रेयजगतगुरु आदि शंकराचार्य को दिया जाता है. कुम्भ मेले का एक और विवरण मुग़लकालकालीन गज़ट खुलासातु-त-तारीख जो की  1665 में लिखा गया था में भी है.
    कुंभ मेला उपरोक्त चारों स्थानों मे से किस स्थान पर लगेगा यह राशियों की स्थिति के आधार पर तय होता है. कुंभ के लिए निर्धारित नियमानुसार जब माघ अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि में होते हैं और गुरू मेष मे होता है तब प्रयाग मे कुम्भ मेला होता है। विष्णु पुराण के अनुसार जब गुरु कुंभ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब हरिद्वार में कुंभ मेले का  
आयोजन होता है. इसी प्रकार  गुरु जब कुंभ राशि में प्रवेश करता है तब उज्जैन में कुंभ मेला आहूत होता हैऔर जब सूर्य एवं गुरू दोनों ही एक साथ सिंह राशि में होते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन नासिक (महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी के तट
आयोजित होता है.
  इसी प्रकार महाकुंभ के आयोजन के संदर्भ मे माना जाता है कि देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के 144 वर्ष के बराबर होता है और मान्यता है कि 144 वर्ष पश्चात स्वर्ग में भी कुंभ का आयोजन होता है और उसी अनुक्रम मे उस वर्ष पृथ्वी पर भी  महाकुंभ का अयोजन किया जाता है किन्तु महाकुंभ के लिए पृथ्वी पर एक मात्र निर्धारित स्थान प्रयाग है। इसीलिए प्रयाग मे होने वाले कुम्भ-अर्धकुंभ और स्नान पर्वों का सर्वाधिक महत्व स्वीकार कर शास्त्रो मे उसे प्रयागराज तीर्थ की उपमा प्रदान  की गई है.
 हमेशा से कुम्भ मेले का आकर्षण रहे साधु, संतों और सन्यासियों के इन अखाड़ों के केन्द्र में नागा साधु रहें हैं . ऐसा माना जाता है कि सनातन धर्म की रक्षा के उद्देश्य से नागा साधुओं की परम्परा प्रारम्भ हुई. कुम्भ के आरंभिक स्वरूप मे पहले दस अखाड़े ही थे, लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई और इस समय पन्द्रह अखाड़े अस्तित्व में हैं.जिनमे से सात शैव, तीन वैष्णव व तीन उदासीन संप्रदाय के अखाड़े हैं और इनमे भी हाल ही सम्मिलित किए गए परी तथा किन्नर अखाड़े प्रयाग कुम्भ मेले का विशेष आकर्षण बने हुये हैं. और जब अपनी पूरी साज –सज्जा के साथ इन अखाड़ों का जुलूस पारंपरिक शस्त्र प्रदर्शन के साथ प्रारम्भ होता है तो आवेग और जोश के साथ वीरता की लहर देखने वालों मे दौड़ जाती है तथा लोग टकटकी लगाए लगातार इस दृश्य को देखते रहतें हैं. यह धार्मिक दिव्यता और शौर्यता का ऐसा अद्भुत समन्वयकारी प्रदर्शन होता है की पूरी दुनिया से इसका साक्षी बनने के लिए करोड़ों लोग खिचें चले आते हैं. क्योंकि सम्पूर्ण विश्व मे किसी भी धार्मिक समागम के लिए एकत्रित होने वाली सर्वधिक भीड़ कुम्भ मेले मे ही एकत्रित होती है और इसीलिए कुम्भ मेला अपने आयोजन एवं नियोजन के लिए पूरी दुनिया के लिए आस्था एवं आकर्षण का केंद्र बना हुआ है.





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