छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानियॉं- एक ऐतिहासिक विश्लेषण
छठी सदी ई.पू. में हुई द्वितीय नगरीय क्रान्ति के फलस्वरूप नगरों के निर्माण का पथ प्रशस्त हुआ। उपलब्ध प्राचीन इतिहास के प्रकाश में पाटलिपुत्र, राजगृह, श्रावस्ती तथा उज्जैन जैसे राजधानी नगरों का प्रभुत्व लक्षित होता है। यद्यपि इसके पूर्व नगरों का अस्तित्व नहीं था यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि हड़प्पीय सभ्यता तो नगरीय, सभ्यता ही थी। इसीलिए छठीं शताब्दी ई.पू.को ऐतिहासिक प्रस्थान बिन्दु मानकर द्वितीय नगरीय क्रान्ति का सूत्रधार समय निर्धारित किया जाता है ।
छठी शताब्दी ई.पू. से लेकर छठी-सातवीं सदी ई. तक उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक मगध, पुरूषपुर, साकल्य, काशी, कान्यकुब्ज, महिष्मती, कॉंची तक नगरों की अविछिन्न परम्परा दृष्टिगोचर होती है। इनमें से अनेक नगर राजधानी के रूप में विख्यात
थे। गुप्तकाल में कोसल क्षेत्र के राज्यों का विवरण ज्ञात होता है। समुद्र गुप्त के सुकृत्यों को केन्द्र में रख विरचित ‘‘प्रयाग प्रशस्ति’’ नामक स्तम्भ अभिलेख से उक्त जानकारी मिलती है2। उल्लेखनीय है कि समुद्रगुप्त द्वारा दक्षिण के राज्यों को विजित करने हेतु जो सैन्य अभियान सम्पादित किया गया था, उसकी सूची में कोसल के महेन्द्र तथा महाकान्तार के व्याघ्रराज आदि का उल्लेख प्राप्त होता है। जिन्हें दक्षिण कोसल (छत्तीसगढ़) के शासक से समीकृत करने का प्रयास किया जाता है। अभिलेख में राजधानी नगर का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। किसी भी राज्य के लिए राजधानी नगर का होना एक आवश्यक अंग होता है और इन राजधानियों का अध्ययन भी अपने आप में अत्यन्त रोचक एवं जिज्ञासवर्धक है।
देश, काल तथा परिस्थितियों के अनुसार नगरों की परिभाषा परिवर्तित होती रही है तथा छत्तीसगढ़ के संदर्भ में भी इसे पृथक नहीं किया जा सकता। प्राचीन इतिहास में छत्तीसगढ़ को प्रायः दक्षिण कोसल के रूप में अभिहित किया जाता है। प्राचीन काल से लेकर छत्तीसगढ़ राज्य के गठन एवं उसकी राजधानी रायपुर निर्धारित होने तक की प्रक्रिया में कौन से ऐतिहासिक मानक रहे हैं तथा तब से लेकर आज तक कितनी राजधानियॉं किन-किन राजवंशों द्वारा स्थापित की गई उनका ऐतिहासिक विवेचन ही प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य है।
II
दक्षिण कोसल (छत्तीसगढ़) के ऐतिहासिक कालखण्ड में पुरालेखिक साक्ष्यों के प्रकाश में शरभपुर को छत्तीसगढ़ की प्रथम राजधानी के रूप में स्वीकार किया जाता है। यद्यपि अभी तक इसकी भौगोलिक पहचान नहीं हो सकी है। शरभपुर की स्थापना का श्रेय शरभपुरीय राजवंश के संस्थापक पुरूष शरभ नामक व्यक्ति को दिया जाता है।
वस्तुतः गुप्त साम्राज्य के लगभग समकालीन माने जाने वाले इस राजवंश के तिथि विहीन अब तक उपलब्ध 15 ताम्रपत्रों में से दस ताम्रपत्र शरभपुर से जारी किए गए हैं। इस तथ्य से समकालीन परिवेश में शरभपुर के महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है। किन्तु इसकी स्पष्ट भौगोलिक पहचान सुनिश्चत होना अभी शेष है।
समय-समय पर अनेक विद्वानों ने शरभपुर के अभिज्ञान का प्रयास किया है किन्तु उस पर सर्वसम्मति का अभाव है। कनिंघम महोदय इसे अरभपुर मानते हुए वर्धा (महाराष्ट्र) जिले के अर्वी नामक स्थान से समीकृत करते हैं वहीं हीरालाल महोदय सिरपुर को ही शरभपुर मानने के पक्षधर दिखाई देते है। इसके अतिरिक्त स्टेनकोनों शरभवरम से तथा राजेन्द्र लाल मित्र उड़ीसा प्रान्त में स्थित आधुनिक सम्बलपुर को ही प्राचीन शरभपुर निरूपित करते है। इसके अतिरिक्त पं.लोचन प्रसाद पाण्डेय इसे नन्दौर (बिलासपुर) के निकट सरभर को शरभपुर निरूपित करते है। प्रो.के.डी.बाजपेयी तथा श्यामकुमार पाण्डेय मल्हार को ही शरभपुर मानते है तथा के.पी.सिंहदेव मरगुड़ा घाटी को, यहॉं यह भी उल्लेखनीय है कि एम.जी.दीक्षित तथा डी.सी.सरकार इसे सिरपुर के समीप ही कहीं स्थित मानते हैं।
उपरोक्त विभिन्न मतों के परीक्षणोपरान्त उन्हें नकारते हुए प्रो.अजयमित्र शास्त्री भविष्य में होने वाले अनुसंधानों में ही शरभपुर की पहचान होने की संभावना व्यक्त करते हैं3।
शरभपुर के पश्चात इसी राजवंश के अत्यन्त प्रतापी शासक प्रसन्नमात्र द्वारा, स्वयं के नाम पर प्रसन्नपुर नामक राजधानी नगर के निडिला नदी के तट पर स्थापना का उल्लेख मिलता है। व्याघ्रराज का मल्लार ताम्रपत्र इसकी राजधानी प्रसन्नपुर से ही जारी किया गया था। सैद्धान्तिक रूप से हमें इसे छत्तीसगढ़ की द्वितीय राजधानी के रूप में स्वीकार करना चाहिए। उल्लेखनीय है कि अभी तक प्रसन्नपुर एवं निडिला नदी की भौगोलिक पहचान नहीं की जा सकी है। यद्यपि मल्हार के समीप बहने वाली लीलागर नदी से इसका समीकरण स्थापित किया जा सकता है और उसी के आस-पास प्रसन्नपुर की स्थिति भी होनी चाहिए।
शरभपुर तथा प्रसन्नपुर के पश्चात् सिरपुर अथवा श्रीपुर नामक राजधानी नगर का विवरण ज्ञात होता है। शरभपुरीय तथा कालान्तर में पाण्डुवंशीय (सोमवंशीय) शासकों की राजधानी के रूप में श्रीपुर एक महत्वपूर्ण नगर था और यह शरभपुरीय शासक सुदेवराज एवं प्रवरराज के शासन काल में ही प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था। सुदेवराज के महासमुन्द तथा कौआताल ताम्रपत्र तथा सुदेवराज के ठाकुरदिया एवं मल्हार ताम्रपत्र सिरपुर से जारी किए गए थे।
कालान्तर में सुदेवराज के सर्वाधिकाराधिकृत इन्द्रबल ने साम्राज्य पर आधिपत्य स्थापित कर पाण्डुवंश के नाम से नवीन साम्राज्य स्थापित कर शासन प्रारंभ किया जिसमें महाशिव तीवरदेव, महाराज हर्षगुप्त, महारानी वासटा तथा महाप्रतापी महाशिव गुप्त बालार्जुन जैसे सम्राट हुए। पाण्डुवंशीय शासकों के शासन काल में सिरपुर का प्रभुत्व पूरे भारतवर्ष में व्याप्त था। यही कारण था कि मगध सम्राट की राजकन्या वासटा का विवाह महाराज हर्षगुप्त के साथ हुआ और महाशिवगुप्त बालार्जुन इन्हीं की संतान थे।
श्रीपुुर की भौगोलिक पहचान वर्तमान में महानदी के तट पर महासमुंद जिले में स्थित सिरपुर नामक ग्राम से की जाती है। कुछ समय पूर्व तक सिरपुर के समीकरण में सन्देह किया जाता था किन्तु चीनी यात्री ह्वेनसांग द्वारा किए गए वर्णन के अनुसार उत्खननों में प्राप्त सामग्री की अत्यधिक साम्यता के आधार पर अब यह स्वीकार किया जाने लगा है कि सिरपुर ही प्राचीन राजधानी नगर श्रीपुर है5। पाण्डुवंशीय शासकों के अनेक ताम्रपत्रों, अभिलेखों, तथा मुद्राओं, पुरावशेषों द्वारा भी इसकी पुष्टि होती हैं।
वर्तमान में श्रीपुर बौद्ध विहार, कांस्य प्रतिमाएॅं, विश्व प्रसिद्ध इष्टिका निर्मित लक्ष्मण मंदिर सहित अनेक बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण पुरावश्ेाषों के लिए सुप्रसिद्ध है।
III
महाशिवगुप्त बालार्जुन के पश्चात् पाण्डुवंशीय साम्राज्य की कीर्ति क्षय होने लगी थी उसके पश्चात् उसके एक पुत्र का अनुमान किया जाता है उसके पश्चात पाण्डुवंशी और राजधानी सिपुर की कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है।
दसवी शताब्दी के तृतीय चरण में त्रिुपरी के कल्चुरि शासकों की एक शाखा के दक्षिण कोसल में आगमन की सूचना ज्ञात होती हैं जिसने ‘‘तुम्माण’’ को अपनी प्रारंभिक राजधानी बनाकर इस क्षेत्र में शासन करना प्रारम्भ किया। इस प्रकार छत्तीसगढ़ में तुम्माण कल्चुरियों की प्रथम राजधानी तथा छत्तीसगढ़ की चौथी राजधानी के रूप में दृष्टिगोचर होता है।
तुम्माण की भौगोलिक पहचान पूर्व लाफा जमींदारी के अन्तर्गत तथा वर्तमान में कटघोरा के समीप जिला कोरबा में स्थित तुम्मान नामक ग्राम के की जाती है। यहॉं से प्राप्त पुरावशेष एवं विशेषकर शिव मंदिर जिसे वंकेश्वर के रूप में समीकृत किया जाता है; उक्त तथ्यों से निर्विवाद रूप से यह स्थान तुम्मान सिद्ध होता है। यद्यपि पूर्व में कीलहार्न महोदय ने इसे बिलासपुर के जूना शहर से समीकृत करने का सुझाव दिया था किन्तु अब उसे कोई स्वीकार नहीं करता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्माण में शासन करते हुए कल्चुरियों ने अपने आपको सुदृढ़ किया उसके पश्चात् उन्होंने नैसर्गिक सुन्दरता से परिपूर्ण एक राजधानी स्थापित करने का निश्चय किया। जिसके फलस्वरूप छत्तीसगढ़ की पांचवी राजधानी रत्नपुर (आधुनिक रतनपुर) को अस्तित्व प्राप्त हुआ।
रतनुपर की स्थापना कल्चुरि शासक रत्नदेव प्रथम ने लगभग 1045 ई. में की थी। जाजल्यदेव प्रथम के रतनपुर शिलालेख से उपरोक्त तथ्य की पुष्टि होती है। रतनपुर की भी भौगोलिक पहचान सभी अध्येताओं ने बिलासपुर जिले में बिलासपुर से लगभग 25 कि.मी.दूर आधुनिक रतनपुर से की है। वर्तमान में भी बड़ी संख्या में उपलब्ध कल्चुरि कालीन पुरावशेषों को इसके प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। क्षेत्र में प्रचलित अनुश्रुतियॉं इसे महाभारत कालीन नगर मणिपुर के रूप में समीकृत करती है। रतनपुर स्थित कल्चुरिकालीन महामाया मंदिर, दुर्ग तथा अनेक सरोवर एवं अन्य पुरावशेष आज भी उसके अतीत के वैभव की गवाही देते है। रतनपुर लगभग ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं सदी ई. तक कल्चुरि शासको की राजधानी बनी रही है।
कल्चुरि शासक वाहरेन्द्र कोसगई (वि.सं.1570) शिलालेख में कल्चुरियों की एक अन्य राजधानी कोसंगा का अभिज्ञान होता है। ऐसा लगता है कि वाहरेन्द्र के शासन काल में राजधानी रतनपुर से कोसंगा स्थानान्तरित गई थी। यद्यपि यह राजधानी परिवर्तन कुछ समय के लिए किया गया प्रतीत होता है इसलिए इसे अस्थायी राजधानी के रूप में स्वीकार करना समीचीन होगा।
कोसंगा की भौगोलिक पहचान बिलासपुर जिले में स्थित कोसगई से की जाती ह8ै। उपरोक्त वर्णित दोनों अभिलेख भी कोसगई से ही प्राप्त हुए थे। संभवतः इसके पश्चात् पुनः राजधानी रतनपुर स्थानान्तरित हो गई थी।
रतनपुर के पश्चात् कल्चुरियों की एक शाखा द्वारा रायपुर को अपना केन्द्र बनाया गया था, जिसके शासक ब्रम्हदेव थे। अनुमान किया जाता है कि उन्होंने स्वयं के नाम पर रायपुर नगर की स्थापना की थी किन्तु कतिपय विद्वान ब्रम्हदेव के पिता रामचन्द्र को इस नगर की स्थापना का श्रेय देते है। रायपुर नगर का उल्लेख राजा ब्रह्मदेव के रायपुर शिलालेख (वि.सं. 1458) तथा अमरसिंहदेव के आरंग ताम्रपत्र (वि.सं. 1792) में भी हुआ है। उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि यह नगर पूर्व से अस्तित्व प्राप्त था। कल्चुरि शासकों ने राजधानी बनाकर उसकी महत्ता में और वृद्धि की। रायपुर नगर की स्थापना के मूल में खारून नदी के समीपवर्ती क्षेत्र में स्थित रायपुरा नामक बस्ती को उदृ्रत किया जाना उचित प्रतीत होता है। खारून तटवर्ती क्षेत्र से प्राचीन काल के नगरावशेष एवं अन्य पुरासामग्री भी प्राप्त होती है जिससे इस तथ्य को बल मिलता है।
ब्रह्मदेव द्वारा कुछ समय के लिए राजधानी को खल्लवाटिका में स्थापित करने का विवरण भी ज्ञात होता है जिसकी भौगोलिक पहचान महासमुंद जिले के बागबाहरा के समीप स्थित आधुनिक खल्लारी से की जाती है10। यहीं से ज्ञात अभिलेख में देवपाल मोंची द्वारा एक विष्णु मन्दिर निर्मित करवाने का भी उल्लेख है जोकि तत्कालीन समय के सामाजिक समरसता का महत्वपूर्ण उदाहरण है। किन्तु खल्लवाटिका भी लम्बे समय तक राजधानी ना रह सकी और पुनः रायपुर कल्चुरियों की राजधानी के रूप में विकसित होता रहा।
छत्तीसगढ़ में कल्चुरि शासकों द्वारा स्थापित राजधानियों एवं विकसित नगरों के सामान्य अध्ययन से यह तथ्य उभरकर आता है कि तुम्माण से लेकर रायपुर तक उनकी जितनी भी राजधानियॉं रही है अथवा जांजगीर जैसे नगर निर्मित हुए हैं वहॉं जल प्रबन्धन उत्कृष्ट कोटि का था। इसीलिए छत्तीसगढ़ के प्रमुख प्रमुख नगरों रायपुर, रतनपुर, जांजगीर, महेशपुर में निर्मित तालाबों का श्रेय इन्ही कल्चुरि शासकों को दिया जाना चाहिए, का उल्लेख समीचीन है।
IV
प्राचीन राजधानियों के पश्चात् स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी रायपुर मध्य भारत के प्रमुख नगर के रूप में परिगणित होता रहा है। सन् 2000 ई. में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी बाजपेयी जी ने छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना की तब रायपुर को प्रदेश की प्रथम राजधानी बनने का गौरव प्राप्त हुआ।
मुख्यतः व्यापारिक केन्द्र होने के कारण रायपुर नगर की बसाहट एवं आबादी दिन-प्रतिदिन विस्तारित होती जा रही है तथा भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति को देखते हुए एक सुनियोजित आधुनिक नगर के रूप में डॉ.रमनसिंह, मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़ द्वारा नवीन राजधानी नया रायपुर नगर की स्थापना की गई जिसका उद्घाटन दिनांक 01 नवम्बर 2012 को किया गया। इस प्रकार नया रायपुर छत्तीसगढ़ की आठवी राजधानी के रूप में अस्तित्व प्राप्त हुआ।
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