गुड़ी पड़वा–सृष्टि का प्रथम दिवस
प्राचीन इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति की
दृष्टि से देश के सर्वाधिक सम्पन्न प्रदेशों मे से एक महाराष्ट्र के विविध पर्वो
एवं त्योहारों मे गुड़ी पड़वा को विशेष दर्जा
प्राप्त है। और यह आम जन-मानस के साथ सीधे तौर पर जुड़ा है जिसका अपना एक
सांस्कृतिक महत्व है जिसकी विशेषताओं एवं महत्व को हम सभी को जानना चाहिए। ब्रह्म पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने
सूर्योदय होने पर सबसे पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा अर्थात (गुड़ी) पड़वा के ही दिन
से सृष्टि की रचना सूत्रपात किया था।
उन्होंने इस प्रतिपदा तिथि को सर्वोत्कृष्ट तिथि कहा था चूंकि इसी दिन से सृष्टि की
रचना प्रारम्भ हुई थी इसलिए इसको सृष्टि का प्रथम दिवस भी कहा जा सकता है। गुड़ी पड़वा
याने कि नव वर्ष के आगमन पर विजयी ध्वज फहराने का दिवस, जो कि उल्लास एवं
उत्साह के साथ प्रतिवर्ष चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन पूरे
महाराष्ट्र मे मनाया जाता है। शाब्दिक रूप
से गुड़ी का अर्थ ध्वज तथा पड़वा अर्थात हिन्दू पंचांग मे प्रतिमाह आने वाली
प्रतिपदा तिथि। वैसे तो गुड़ी पड़वा की
उत्पत्ति एवं आयोजन के संदर्भ मे कतिपय ऐतिहासिक एवं पौराणिक मान्यताएँ प्रचलित
हैं ।
वस्तुतः यह भारतीय परंपरा मे नववर्ष
के आगमन का प्रथम दिवस है जिसे हमारे देश के विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग तिथियों
के अनुसार मनाया जाता है किन्तु रोचक है की ये सभी महत्वपूर्ण तिथियाँ मार्च और
अप्रैल के महीने में ही आती हैं। उल्लेखनीय है की इस नववर्ष को प्रत्येक प्रांत
में अलग-अलग नामों से जाना जाता है किन्तु फिर भी पूरा देश चैत्र माह से ही नववर्ष
का प्रारम्भ स्वीकार करता है जिसे नव संवत्सर के रूप में भी जाना जाता है। इसके
भिन्न-भिन्न नाम जो कि अलग-अलग प्रदेशों मे मिलते हैं, जैसे की महाराष्ट्र
में 'गुड़ी पाड़वा’, जम्मू-कश्मीर में 'नवरेह', सिंधियों में 'चेटी
चंद', केरल में 'विशु', असम में 'रोंगली बिहू', आंध्र,
तेलंगाना तथा कर्नाटक में 'उगादी' और मणिपुर में 'साजिबू नोंग्मा पन्बा चैराओबा'
आदि सभी की तिथियां नव संवत्सर, जिसे विक्रम
संवत के नाम से भी जाना जाता है, के आस-पास ही आती हैं।
पुराणों के अनुसार इसी दिन भगवान विष्णु ने
मत्स्य अवतार लिया था, इसी दिन से शक्ति की उपासना अर्थात नवरात्र की शुरुआत भी होती है। और इसी
दिन को भगवान राम का राज्याभिषेक हुआ था और पूरी अयोध्या में विजय पताका फहराई गई
थी। यह भी मान्यता है, कि इस दिन भगवान राम ने दक्षिण के लोगों को बाली के अत्याचार और शासन से
भी मुक्त कराया था, जिसकी प्रसन्नता में हर घर में गुड़ी
अर्थात विजय पताका फहराई गई थी ।
इसके अतिरिक्त यह भी माना जाता है
की हिन्दू पंचांग का आरंभ भी गुड़ी पड़वा
से ही होता है। कहा जाता है कि महान गणितज्ञ भाष्कराचार्य द्वारा इसी दिन से, सूर्योदय से
सूर्यास्त तक दिन, माह, प्रहर,तिथि और वर्ष की गणना कर पंचांग की रचना की गई थी। ज्योतिषियों के अनुसार
इसी दिन से रात्रि की अपेक्षा दिन बड़ा होने लगता है और इसी दिन से चैत्री पंचांग
का भी आरम्भ होता है। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि ज्योतिष शास्त्र में ग्रह, ऋतु, मास, तिथि एवं पक्ष आदि
की गणना भी चैत्र प्रतिपदा से ही की जाती है।
ऐतिहासिक रूप से यह माना जाता है
नवसंवत्सर के जनक महाराज विक्रमादित्य थे जिन्होने
ने शकों का उन्मूलन कर जनमानस को भय से
मुक्ति दिलाई थी और विजयी ध्वज फहराया था। और इस विजय के उपलक्ष्य मे 57 ईस्वी मे उनके
द्वारा एक संवत प्रवर्तित किया गया जो कि आज ही के दिन प्रारम्भ हुआ था जिसे उन्ही
के नाम पर विक्रम संवत कहा जाता है। यही विक्रम संवत, नव संवत्सर के रूप मे
प्रसिद्ध हुआ और वर्तमान मे हमारे देश का सर्वाधिक लोकप्रिय संवत है जिसे
प्रतिवर्ष गुड़ी पड़वा वाले दिन नव संवत्सर के रूप मे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
सम्पूर्ण महाराष्ट्र मे सांस्कृतिक
दृष्टि से गुड़ी पड़वा का अत्यधिक महत्व है तथा इसे बड़े उत्साह के साथ आयोजित किया
जाता है इसकी पृष्ठभूमि मे यह स्वीकार
किया जाता है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ही छत्रपति शिवाजी महाराज ने भगवा
ध्वज फहराकर कर हिन्दू पद पादशाही साम्राज्य की स्थापना की स्थापना की थी । उसी
परंपरा के अनुपालन मे सम्पूर्ण महाराष्ट्र मे आज भी घर–घर मे गुड़ी कि स्थापना
कि जाती है, आम के पत्तों की बंदनवार लगाई जाती है तथा उसका
पूजन कर तथा परम्परिक व्यंजनो पूरणपोली, श्रीखंड आदि के साथ
स्वागत किया जाता है।
वैसे तो महाराष्ट्र मे प्रत्येक पर्व
का अपना विशिष्ट महत्व है परंतु गुड़ी पड़वा का पर्व अत्यंत शालीनता और गरिमामय रूप
से मनाया जाता है और घरों पर स्थापित होने वाली रंग-बिरंगी गुड़ी के माध्यम से पूरे
देश को जोश एवं ऊर्जा के साथ प्रतिवर्ष नव
संवत्सर की गुड़ी (पताका) फहराने का संदेश देता है।
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