Sunday, July 7, 2019


अजंता गुफाओं की पुनःखोज के 200 वर्ष

                     

      हाँ,अप्रैल का ही महीना था और साल था 1819, जब ब्रिटिश भारतीय सेना ककी मद्रास रेजीमेंट के कैप्टन जॉन स्मिथ शिकार के दौरान अजंता की महान बौद्ध गुफाओं तक पहुंचे और उसे पश्चिमी दुनिया के विद्वानो से परिचित कराया तथा समीप ही स्थित गाँव अजंता (अजिंठा) के नाम पर इसका नामकरण अजंता कर । जबकि अजंता गुफाएँ वन ग्राम लेनापुर की राजस्व सीमा मे स्थित हैं और वह अजिंठा की तुलना मे अधिक निकट है और स्थानीय लोग  तो  इन गुफाओं को रंगित लेणी के नाम से ही जानते हैं। उल्लेखनीय है की स्थानीय स्तर पर तो  यह गुफाएँ  पूर्व से ही ज्ञात थी किन्तु कतिपय विद्वान गुफा क्रमांक 10 मे एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण कैप्टन जॉन स्मिथ के हस्ताक्षर के आधार पर उसे इसकी पुनः खोज का श्रेय देते है जिसके संदर्भ मे और शोध की आवश्यकता है ।यदपि माह और वर्ष तो स्पष्ठ है जबकि तिथि के संदर्भ मे कतिपय विद्वान इसे 18 अप्रैल और कतिपय 28 अप्रैल मानते हैं ।  वैसे तो चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री ह्वेन सांग ने  सातवीं सदी ईस्वी मे ही उक्त गुफाओं का उल्लेख किया था किन्तु वे कभी इनका भ्रमण नहीं कर पाये थे। अनेक शताब्दियों तक गुमनाम रहने के बाद पुनः इनकी खोज हुई और इस प्रकार आज अजंता की पुनः खोज के 200 वर्ष पूर्ण हो गए है।तब से लेकर आज तक लाखों पर्यटकों इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं के साथ–साथ विश्व के अनेक प्रमुख व्यक्तियों ने भी समय-समय पर इनका भ्रमण किया है। अजंता की ये बौद्ध गुफाएं समुद्रतल से लगभा 430 मी. ऊंचाई पर वाघोरा नदी के बाएँ तट पर स्थित हैं और यह औरंगाबाद से लगभग 106 किमी तथा जलगांव से लगभग 60 किमी दूर स्थित हैं। आवागमन की दृष्टि जलगांव निकटतम रेवे जंक्शन और औरंगाबाद निकटतम हवाई अड्डा है।
 अजंता की गुफाएं वास्तुशिल्प  एवं विशेषकर भित्ति चित्रकला का दुनिया मे अनुपम उदाहरण हैं जो भारत की समृद्ध प्राचीन चित्रकला की विरासत को विश्व-पटल पर प्रदर्शित करती हैं जिसे भारत सरकार ने सन 1951ईस्वी मे राष्ट्रीय महत्व का संरक्षित स्मारक और सन 1983 मे यूनेस्को ने  इसे विश्व विरासत स्थल(World Heritage Site) घोषित किया थावर्तमान मे इन गुफाओं की देख-रेख केंद्र सरकार के अंतर्गत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण औरंगाबाद मण्डल द्वारा की जाती है।
ये गुफाएं घोड़े की नाल के आकार की खड़ी चट्टान मे उत्खनित गई हैं, जहां नीचे वाघोरा नदी प्रवाहित है। यहाँ पर यह नदी लगभग 200 फुट की ऊंचाई से गिरती है, जिसके परिणामस्वरूप झरने की एक श्रृंखला बनती है जिन्हे सप्तकुंड जहा जाता है बारिश के दिनो मे यह अपने पूरे उफान पर होता है और पर्यटकों के लिए यह एक अतिरिक्त आकर्षण भी होता है।
अजंता मे कुल 30 गुफाएँ है जो पैदल भ्रमण के क्रम मे क्रमांक 01 से लेकर 30 तक नामांकित है और इनमे चित्रित कथानक भगवान बुद्ध के पूर्व जन्म से जुड़ी जातक कथाओं एवं उनकी चर्याओं से संबन्धित हैं। उक्त गुफाओं मे 9,10,19,26 एवं 29 नंबर की गुफाएँ चैत्यगृह हैं और शेष संघाराम अथवा विहार हैं जहां पर बौद्ध भिक्षु/ विद्यार्थी निवास करते थे तथा बौद्ध धर्म से संबन्धित अध्ययन ,ध्यान आदि सीखते थे।इस प्रकार यह गुफा समूह एक बौद्ध विद्यालय का  भी कार्य करता था। अजंता गुफा समूह मे बौद्ध धर्म के हीनयान (इसमे मूर्ति पूजा निषेध है) और महायान(इसमे मूर्ति पूजा की जाती है) दोनों समप्रदायों से संबन्धित गुफाएँ निर्मित की गई हैं।
अजंता की गुफाएँ दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर सातवीं  शताब्दी  तक उत्खनित/ निर्मित की गईं और सभी गुफाएं भगवान बुद्ध को समर्पित हैं। यहाँ पर तत्कालीन उत्कृष्ट वास्तुकला और कलात्मक चित्रों से गुफाओं को सुसज्जित  किया गया हैपूरी दुनिया मे विख्यात अजन्ता की भित्ति चित्रकला, तत्कालीन सामाजिक संरचना को भी प्रदर्शित करती हैइनमे अप्रतिम सौंदर्यबोध को प्रदर्शित करती राजाओं,व्यापारियों,राजदूतों,दासों पुरुषों,महिलाओं तथा लों-फूलों, पक्षियों जानवरों की नयनाभिराम चित्र एवं मूर्तियां मानवीय कला के उच्चतम प्रतिमानो को दर्शाते हैं। इसके अतिरिक्त यक्ष‘,‘गंधर्वकिन्नर, अप्सरा भारवाहक, मालाकार, चैत्य अलंकरण आदि भी आकर्षण का विषय हैं।
यद्यपि पहले यहाँ पर खोदी गई सभी गुफाओं मे चित्र थे परंतु अब वर्तमान मे गुफा क्रमांक 1, 2, 16 और 17  ही कलात्मक दृष्टि से  अत्यंत  महत्वपूर्ण हैं जिनमे महाजनक जातक, षदंत जातक,विश्व प्रसिद्ध पद्मपाणि-वज्रपाणि,आदि के चित्र भारतीय चित्रकारों द्वारा दुनिया को दी गई अद्भुद भेंट है जिनके सामने आधुनिक की दुनिया की कला भी बौनी साबित होती हैं।
अजंता गुफाओं के चित्र टेम्पेरा तकनीक का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं जिसमे सबसे पहले गुफा के भीतर की खुरदुरी गुफाओं की दीवारों को छेनी से तराशा गया गया उसके बाद दीवार पर मिट्टी,  गौरंग और धान की भूसी, जड़ों का मिश्रण लेपित कर एक के उपर एक विभिन्न परतों का निर्माण किया गया है एक बार परत तयार हो जाने के बाद  सूखी सतह पर चूने की पतली परत की  पेंटिंग कर दी जाती थी, जब यह सूख जाती थी तो इस पर रेखांकन (outline) किया जाता था और जब रेखांकन तैयार हो जाते थे तो उनमे आवश्यकतानुसार अलग –अलग रंग भरे जाते थे जिससे त्रिविमीय चित्र बनते थे। और ये रंग प्राकृतिक होते थे जिनके निर्माण मे केवलिन, शंख-शीपी, शीशा,लालगेरू,पीली गेरू,लेपिस्लजुली आदि का प्रयोग किया जाता था ।
उपलब्ध तथ्यों के अनुसारगुफाओं को दो अलग-अलग समूहों  में उत्खनित किया गया था  जिमें कम से कम चार सौ  वर्षों का अंतर था। पहले समूह में निर्मित गुफाएँ , दूसरी सदी ईसा पूर्व की तथा दूसरे समूह की गुफाएँ वाकाटकों, गुप्त शासकों और दान-दाताओं द्वारा निर्मितकार्य गया गया था। गुफा क्रमांक 16 एवं 17  के निर्माण क्रमशः वकाटक शासक हरिषेण (475-500 AD.) के महामंत्री वराहदेव तथा सामंत उपेंद्रगुप्त द्वरा करवाया गया था। इससे संबन्धित प्राचीन अभिलेख भी गुफाओं मे उत्कीर्ण हैं।
अजंता की ये महान गुफाएँ न केवल बुद्ध के जीवनबोधिसत्व और जातक की घटनाओं को प्रस्तुत कथानको के चित्र और मूर्तियाँ को प्रस्तुत करती हैं बल्कि ये उन अनाम भारतीय स्थापतियों,चित्रकारों और संरक्षकों को भी विश्वव्यापी बनाते हैं जिन्होने बिना किसी श्रेय की लालसा के इन गुफाओं के निर्माण मे अपना जीवन समर्पित कर दिया। हाँ ! अजंता गुफाओं से संबन्धित महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हाल ही भारत सरकार द्वारा जारी की गई नई मुद्राओं मे सबसे बड़ी मुद्रा 2000 रुपए के नोट पर अजंता के चित्रों को स्थान दिया गया है जिनके माध्यम से अजंता के चित्र पूरी दुनिया मे भ्रमण कर रहे हैं। 





एलोरा का कैलाश मंदिर- कला एवं स्थापत्य का अजूबा

        
      कैलाश मंदिर,एलोरा (प्राचीन नाम एलपुरा), पूरी दुनिया में अपने ढंग की अनूठी वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है जो कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर से लगभग 30 किमी दूर खुल्दाबाद तालुका मे एलगंगा नमक स्थानीय नदी के तट पर स्थित है। वस्तुतः यह एलोरा (स्थानीय नाम वेरुल) मे निर्मित विश्व प्रसिद्ध जैन, बौद्ध तथा हिन्दू धर्म से संबन्धित 32 गुफाओं मे 16वें क्रमांक की गुफा है और सबसे बड़ी है जिसमे भव्य कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूट वंश के शक्तिशाली नरेश कृष्ण (प्रथम) (756-7750) द्वारा पूर्ण कराया गया  था। इस मंदिर का प्राथमिक संदर्भ सर्वप्रथम दसवीं सदी ईस्वी के अरब के भूगोलवेत्ता अल मसूदी के विवरण मे मिलता है। इसके पश्चात एक और महत्वपूर्ण विवरण सुल्तान हसन गंगू बहमनी का है जिसने सन 1352 ईस्वी मे एलोरा  गुफाओं का भ्रमण किया था उस दौरान  वहाँ के पहुँच मार्ग की मरम्मत की गई थी। इसके अतिरिक्त तेरहवीं-चौदहवी सदी ईस्वी  के धार्मिक ग्रन्थों, महनुभाव संप्रदाय के महिमाभट द्वारा रचित लीलाचरित तथा संत ज्ञानेश्वर के अमृतानुभव, मे भी एलोरा गुफाओं का उल्लेख मिलता है।     
वैसे तो एलोरा मे निर्मित सभी शैलोत्खनित गुफाएँ वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना हैं तथा इनकी कुल संख्या 100 से अधिक है परंतु मुख्य रूप से पर्यटकों द्वारा यहाँ 34 गुफाओं का भ्रमण किया जाता है। ये गुफाएँ एलोरा स्थित पहाड़ी की पश्चिमी दिशा खोदी गई हैं जो की लगभग 1.5 किमी क्षेत्र में विस्तृत हैं बौद्ध, ब्राह्मण तथा जैन समूहों में विभाजित हैं जिनका क्रम संख्या के अनुसार विवरण निम्नानुसार है-
1.  बौद्ध समूह     -  गुफा क्रमांक 1-12  (लगभग 450-650 ईस्वी)
2.  ब्राह्मण समूह  -  गुफा क्रमांक 13-29 (लगभग 650-850 ईस्वी)
3.  जैन समूह     -  गुफा क्रमांक 30-34 (लगभग 800-1100 ईस्वी)
उपर वर्णित इन गुफाओं मे भी कैलाश मंदिर(गुफा) का वास्तु शिल्प देखकर यह विश्वास ही नहीं होता की इतना भव्य शिल्पशास्त्रीय सौंदर्ययुक्त देवालय किसी मानव के हाथों द्वारा निर्मित किया गया होगा। अपनी बेजोड़ स्थापत्यकला एवं अभियांत्रिकीय कौशल और अनुपम शिल्पकारी के कारण यह सम्पूर्ण विश्व में आकर्षण का केंद्र है। इसीलिए सन 1983 मे यूनेस्को द्वारा इसे विश्व धरोहर स्मारक का दर्जा प्रदान किया गया। यहाँ
 डेक्कन बसाल्टिक ट्रेप पहाड़ को काटकर इस मंदिर का निर्माण किया गया है। परंपरागत रूप से अलग हटकर पहाड़ से एक हिस्सा काट कर अलग किया गया फिर उस एक ही शिलाखंड को तराशकर  कैलाश मंदिर का निर्माण किया गया। चूंकि भगवान शिव का निवास कैलाश पर्वत को माना जाता है और यह मंदिर भी एक पर्वत मे खोद कर बनाया गया है, जिसमे रावण द्वरा कैलाशोत्तोलन प्रतिमा  का निर्माण भी किया गया है, संभवतः इसीलिए इस मंदिर का नामकरण कैलाश किया गया है।   
समान्यतः किसी भी मंदिर का निर्माण नीचे से ऊपर की ओर किया जाता है किन्तु दो मंजिला कैलाश मंदिर का  निर्माण ऊपर से नीचे की ओर किया गया है इसीलिए प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर ने कहा था कि आदि कलश मग पाया अर्थात पहले कलश फिर अधिष्ठानइस मंदिरका निर्माण  द्रविड़ शैली से प्रभावित दिखाई देता है और पट्ट्ड़कल स्थित विरूपाक्ष मंदिर से यह कतिपय लक्षणो मे साम्यता साम्यता प्रदर्शित करता है। अपने आकार-प्रकार मे यह  लगभग 308 फीट लम्बा 188 फीट चौड़ा तथा 95 फीट ऊंचा  है। यह मंदिर केवल एक चट्टान को काटकर बनाया गया है। इसके निर्माण में अनुमानत: लगभग 50 हज़ार टन भार के पत्थरों  को चट्टान से काटकर हटाया गया।जिसके निर्माण मे लगभग 200 वर्ष का लंबा समय तथा लगभग 50,000 से ज्यादा मजदूरों का परिश्रम लगा था। इस कैलाश मंदिर (गुफा) को मुख्य रूप से चार भागो मे विभाजित  किया जा सकता-
1.  प्रवेश द्वार- यह दक्षिण भारतीय शैली मे गोपुरम के रूप मे निर्मित है जिसमे प्रवेश करते ही द्वारपाल तथा बायीं ओर गणेश,दायीं ओर महिषासुरमर्दिनी और सामने गजाभिषिक्त लक्ष्मी का अंकन किया गया है।
2.  नंदी मंडप-  यह खुला मंडप है जिसमे नंदी स्थापित है।
3.  मुख्य मन्दिर- मुख्य मन्दिर एक ऊंचे अधिष्ठान पर आँगन मे निर्मित है मन्दिर की बाह्यभित्ति की आधार पंक्तियों में हथियों का गजपीठ के रूप मे उत्कीर्णन किया गया है क्योकि भार सहन करने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त गजपीठ मानी जाती है। बाई तथा दायी ओर क्रमशः महाभारत एवं रामायण के कथानकों का अंकन किया गया। इसके साथ ही दायीं ओर रावण द्वारा कैलाश पर्वत को अपनी दोनों भुजाओं पर  उठाने का सजीव चित्रण है।इसके अतिरिक्त सिंहों के अनेक दृश्यों मे बाईं भित्ति पर बाल सिंह का मुकुरता दृश्य अत्यंत रोचक है।किसी भी प्रस्तरखंड पर इतना जीवंत उत्कीर्णन दिखाई नहीं देता जिसमे रावण द्वारा पर्वत उठाने पर पार्वती सहित शिवजी और अन्य गण एक तरफ गिरते हुये दिखाई  देते हैं। मंदिर मे प्रवेश एवं निर्गम हेतु करने हेतु दोनों ओर सीढ़ियों का निर्माण किया गया है जिसके माध्यम हम नंदी मंडप मे पहुँचते हैं। मुख्य मंदिर की वस्तु संयोजना मे क्रमशः नंदी मंडप, स्तंभधारित सभामंडप,अंतराल तथा गर्भगृह सम्मिलित है जिसमे विशाल शिवलिंग स्थापित है। गर्भगृह की छत पर खिले हुये कमल पुष्प का अंकन है।
मन्दिर  का सभामंडप विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिसमे 16 अलंकृत स्तम्भ हैं जिन पर मन-मोहक कीर्तिमुख उकेरे गए हैं। सभामंडप की छत के आंतरिक भाग मे भगवान शिव के तांडव नृत्य की अद्भुत प्रतिमा स्थपति द्वारा उत्कीर्ण की गई है जो इसलिए महत्वपूर्ण है कि उल्टा लेटकर अथवा बैठकर ऐसी सुंदर प्रतिमाओं का छत मे उसी स्थान पर उत्कीर्णन असंभव सा कार्य है। इसी सभामंडप मे चित्रकला के कतिपय पुराने दृश्य एवं शिव–पार्वती,ब्रह्मा,गणपती, नृसिंह आदि प्रतिमाएँ  भी देखी जा सकती हैं।गर्भगृह का अपना पृथक से भी प्रदक्षिणा पथ है जिस पर पाँच अन्य छोटे मंदिर हैं जिससे यह मंदिर पंचायतन शैली मे निर्मित मंदिर प्रतीत होता है ।
4.  बाह्य परिक्रमापथ- मुख्य मंदिर के पश्चात नीचे आने पर मंदिर का बाह्य परिक्रमा पथ है जिसमे मंदिर के दोनों ओर एक-एक हस्ति तथा अलंकृत ध्वज स्तम्भ स्थापित किए गए हैं। मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार से अंदर जाकर यदि हम बाई ओर से इसका अवलोकन प्रारम्भ करें तो सबसे पहले हमे गंगा-यमुना तथा सरस्वती की मानवाकर  प्रतिमाएँ स्वतंत्र रूप से स्थापित दिखाई हैं। इसके पश्चात इस पूरे परिक्रमापथ पर जो की मंदिर के तीनों ओर विस्तारित है जिसमे एक से बढ़कर एक भगवान शिव, विष्णु ब्रह्मा, कृष्ण तथा नृसिंह आदि से संबन्धित चमत्कृत कर देने वाली अद्भुत प्रतिमाओं की तीन वीथिकाएं निर्मित हैं,जिसे संग्रहालय के प्राचीनतम उदाहरण के रूप मे भी स्वीकार किया जा सकता। इस वीथिका मे उत्कीर्ण कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतिमाओं मे, शिव पार्वती की पाणिग्रहण,रावण द्वारा भगवान शिव को दसवां सिर अर्पित करने का दृश्य,शिव-पार्वती का क्रीडा दृश्य तथा भगवान विष्णु की नाभि से ब्रह्मा के उद्भव का दृश्य आदि अत्यंत आकर्षक एवं मनमोहक हैं।
5.  केंटीलीवर- मुख्य मंदिर के पृष्ठ भाग मे अखंड चट्टान का लगभग लगभग 131 फीट लंबा तथा लगभग 33 फीट चौड़ा हिस्सा केंटीलीवर, अभियांत्रिकी की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है जिस पर हजारों टन चट्टान का भार है और वह बिना किसी आलंबन के बाहर लटका हुआ है। इससे प्रमाणित होता है की प्राचीन काल मे भारतीय स्थपति  भार आधारित गणना तथा उसके अनुसार संरचनाओं के निर्माण मे निपुण थे। ऐसा कौशल दुनिया की किसी भी मानव निर्मित गुफाओं मे दिखाई नहीं देता।
यदि हम कैलाश मंदिर की मूर्तिकला पर दृष्टिपात करें तो एलोरा का तत्कालीन स्थपति अपने  कला-कौशल चमत्कृत कर देता है। एक ओर जहां भैरव की मूर्ति जितनी भयाक्रांत करती है वहीं पार्वती की प्रतिमा उतनी ही सौम्य तथा स्नेहशील लक्षित होती हैं। और शिव की तांडव प्रतिमा की भाव-भंगिमा एवं ऐसा आवेश जो संसार की किसी अन्य पाषाण प्रतिमा मे दिखाई नहीं देता। इसके साथ ही शिव-पार्वती की कल्याण सुंदरम प्रतिमा मे परिणय के मर्यादापूर्ण भावी सुख की कामना झलकती है विशेषकर पार्वत -शिव जब एक दूसरे के हाथों को थमते है तब होने वाली अनुभूति को पार्वती अपने एक पैर के अंगूठे से दूसरे पैर को दबाकर प्रदर्शित करना पाषाण मूर्तिशिल्प की पराकाष्ठा है जो अन्यत्र अनुपलब्ध है। इसी प्रकार रावण के कैलाशोत्तोलन का उत्कीर्णन  पौरुषता को प्रदर्शित करता है। उसकी भुजाएँ फैलकर कैलाश के आधारतल को जकड़ लेती हैं और इतने जोर से कंपित करती हैं कि उमा-शिव  के साथ ही कैलाश के अन्य जीव भी भयग्रस्त एवं संत्रस्त हो जाते हैं परंतु फिर अचानक भगवान शिव अपने पैर के अँगूठे से पर्वत को हल्के से दबाकर रावण के दर्प को चूर-.चूर कर देते हैं। महान संस्कृत कवि कालिदास ने कुमारसंभव में रावण द्वारा कैलाश को कंपित कर कैलाश की संधियों के बिखर जाने का जो विवरण दिया है उसे साकार करने में एलोरा के कलाकारों ने अपना पूरी विशेषज्ञता लगा दी तथा अपनी निपुणता से  एलोरा की मूर्तिकला को पूरी दुनिया मे अतुलनीय बना दिया।और इसलिए इसे यदि कला एवं स्थापत्य का अजूबा कहाजाए तो अकोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
   अतः उक्त मंदिर के अवलोकन के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है की एलोरा का कैलाश मंदिर  भारतीय अभियांत्रिकी-स्थापत्य एवं शिल्पकला की अद्वितीय कृति है जिसकी तुलना दुनिया के किसी भी अन्य शिल्प से नहीं की जा सकती और शायद इसीलिए यूनेस्को ने इसे पूरी दुनिया की अत्यंत महत्वपूर्ण धरोहर स्वीकार किया है।




            औरंगाबाद और विश्व धरोहर की राहें

                                                  
         विश्व धरोहर सप्ताह / विश्व धरोहर दिवस के आयोजन के अवसर पर  विश्व धरोहर स्मारकों की चर्चा अवश्य होती है और इसी क्रम मे औरंगाबाद के विश्व धरोहर शहर घोषित होने की चर्चा भी कहीं-कहीं सुनाई देती है। औरंगाबाद के संदर्भ मे यह तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब स्वयं मुख्यमंत्री महोदय ने औरंगाबाद मे आयोजित मंत्रिमण्डल की विशेष बैठक में ऐतिहासिक औरंगाबाद शहर को हेरिटेज सिटी घोषित करने हेतु यूनेस्को को प्रस्ताव भेजने घोषणा की थी और हाल ही मे इसके लिये महाराष्ट्र शासन द्वारा विशेषज्ञ/ एजेंसी के चयन हेतु प्रस्ताव आमंत्रित कर प्रक्रिया भी प्रारम्भ कर दी गई है ।

किसी भी शहर को विश्व विरासत का तमगा मिलना अपने आप में हर्ष और गर्व का विषय होता है | विश्व में ऐसे अनेक प्राचीन शहर हैं जो अपनी प्राचीनता के साथ साथ मौलिकता को अक्षुण्ण बनाए हुये आज भी विद्यमान हैं और उन शहरों की ये ख़्वाहिश रहती है कि वे भी विश्व धरोहर की सूची मे सम्मिलित हों | अभी पिछले वर्ष 2017 मे ही भारत के एकमात्र ऐतिहासिक शहर अहमदाबाद को विश्व विरासत घोषित का गौरव प्राप्त हुआ है जो कि एशिया महाद्वीप का तीसरा शहर है। इसके पहले भक्तपुर (नेपाल) एवं गाले (श्रीलंका) इस सूची मे सम्मिलित हो चुके हैं | आइये जानने की कोशिश करते हैं कि यह प्रक्रिया कैसे पूरी होती है-

पूरी दुनिया में किसी शहर अथवा स्मारक को विश्व विरासत अथवा विश्व दाय घोषित करने का कार्य संयुक्त राष्ट्र का शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन जिसे संक्षिप्त में यूनेस्को कहा जाता है करता है | पूरी दुनिया में 167 देशों की मात्र 1092 विरासतें हीं विश्व धरोहर का दर्जा प्राप्त हैं जिनमे 845 सांस्कृतिक, 209 प्राकृतिक तथा 38 मिश्रित श्रेणी की हैं | वर्तमान में हमारे देश में कुल 37 विश्व धरोहर स्मारक/स्थल यूनेस्को द्वारा घोषित किए गए हैं जिनमे 29 सांस्कृतिक, 07 प्राकृतिक तथा 01 मिश्रित श्रेणी की हैं | भारत में सबसे पहले विश्व धरोहर स्मारक घोषित होने वाले स्मारकों में औरंगाबाद  जिले में स्थित अजंता-एलोरा भी सम्मिलित है इसके अतिरिक्त एलीफेंटा गुफाएँ,छत्रपति शिवाजी टर्मिनस और पश्चिमी घाट भी अन्य उदाहरण हैं|

वैसे तो हर साल विश्व विरासत स्मारक घोषित किए जाते हैं किन्तु इसकी एक निश्चित प्रक्रिया है जिनका पालन करना यूनेस्को के सभी सदस्य देशों के लिए अनिवार्य होता है | सामान्यत: हमारे देश में किसी भी विरासत को चिन्हित कर यूनेस्को में नामांकन का कार्य भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत स्थापित विशेष प्रकोष्ठ एवं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के माध्यम से किया जाता है | सबसे पहले पूर्व से  गठित समितियों द्वारा क्षेत्रवार इस प्रकार की विरासतों की पहचान के लिए राज्य सरकार के पुरातत्व विभागों/ सांस्कृतिक उपक्रमों से प्रस्ताव आमंत्रित किए जाते हैं तथा विशेषज्ञों के सामने उनका प्रस्तुतीकरण होता है उसके पश्चात केंद्रीय स्तर पर स्थापित समिति राष्ट्रीय स्तर पर विरासत को यूनेस्को में नामांकन करने के प्रस्ताव को हरी झंडी देती है फिर विशेषज्ञों का समूह नामांकन डॉजियर बनाने का कार्य करता है | 

यह नामांकन डॉजियर ही सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़ होता है जिसके मूल्यांकन के आधार पर यूनेस्को निर्णय लेता है कि उक्त स्मारक के अंतिम नामांकन के लिए चयन किया जाना चाहिए अथवा नहीं | उक्त नामांकन डॉजियर के तैयार होने के बाद केंद्र सरकार यूनेस्को के समक्ष उक्त प्रस्ताव को विश्व विरासत घोषित करने हेतु प्रस्तुत करती है |  यदि उक्त नामांकन स्वीकार किया जाता है तो उक्त स्मारक, प्रस्तुतकर्ता देश की प्रारम्भिक सूची  में शामिल किया जाता है| भारत द्वारा यूनेस्को में इस प्रकार के लगभग 41 प्रस्ताव यूनेस्को की प्रारम्भिक सूची में विश्व विरासत का दर्जा पाने की प्रत्याशा में लंबित हैं |

हाँ, रोचक बात यह है कि दुनिया का प्रत्येक देश चाहे वह छोटा हो या बड़ा प्रत्येक वर्ष सामान्यत: एक ही प्रस्तुत कर सकता है | प्रस्तुत होने वाले किसी भी प्रस्ताव का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा उस शहर अथवा स्मारक की यूनिवर्सल वैल्यू अर्थात वैश्विक महत्व तथा ऑथाण्टिकेशन अथवा मौलिकता होती है  | इसके अतिरिक्त समय समय पर होने वाले बदलावों, संरक्षण, स्वामित्व, अतिक्रमण, तथा विधिक समेत अनेक मुद्दों का निराकरण भी  सम्मिलित   होता है | कुल मिलाकर यह एक लंबी  प्रक्रिया होती है जिसमे कम से कम तीन-पाँच वर्ष का समय लगता है और उक्त सारे मानदंडों पर खरा उतरने के पश्चात यूनेस्को के अंतर्राष्ट्रीय  विषय विशेषज्ञों के समूह एवं संगठन जिनमे आईकोमास/आई यू सी एन आदि सम्मिलित होते हैं जो स्वयं उक्त स्थान पर जाकर  वस्तुस्थिति का आकलन करते हैं  और उस से संतुष्ट होने के पश्चात यूनेस्को द्वारा अंतिम रूप से विश्व धरोहर/विरासत का दर्जा प्रदान किया जाता है |

इस प्रकार यह एक लंबी और जटिल प्रक्रिया होती है जिसमे विश्व विरासत घोषित होने के लिए प्रस्तावित स्मारक / शहर को यूनेस्को द्वारा निर्धारित मानकों पर खरा उतरना होता है और औरंगाबाद के लिये यही सबसे बड़ी चुनौती होगी। हालांकि स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत भी औरंगाबाद महानगरपालिका शहर के ऐतिहासिक महत्व को ध्यान मे रखकर संबन्धित विभागों से चर्चा कर अपनी योजनाएँ यूनेस्को  के मानको के अनुसार कार्यान्वित कर सकती है जिससे की विश्व विरासत घोषित होने की प्रक्रिया को बल मिल सके किन्तु इसके लिए शासन के विशेष प्रयासों के साथ-साथ तकनीकी विशेषज्ञों की भी आवश्यकता होगी क्योंकि “दिल्ली” जैसा ऐतिहासिक राजधानी शहर अभी भी विश्वविरासत घोषित होने के लिए जद्दोजहद कर रहा है |
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कठिन होता जा रहा है धरोहरों का संरक्षण


        जब  पूरी दुनिया मे 18  अप्रैल को विश्व धरोहर दिवस आयोजित करने की तैयारी की जा रही  थी, उससे ठीक दो दिन पहले धरोहर प्रेमियों के लिए फ्रांस से एक दुखद खबर आई की फ्रांस स्थित लगभग 850 साल पुराना नोमेड्स चर्च एक भीषण अग्निकांड मे जलकर खाक हो गया। इसी प्रकार इराकी युद्ध के दौर मे भी बेबीलोनियन सभ्यता  के महत्वपूर्ण अवशेष खत्म हो गए और बमियान की बुद्ध मूर्ति को तो विस्फोट से ही उड़ा दिया गया था।  आज सम्पूर्ण विश्व मे प्राचीन विरासतों को सहेजना अत्यंत कठिन होता जा रहा और यह बात हर क्षेत्र मे लागू होती है चाहे विलुप्त होती बोलियों की बात हो या समाप्ति के कगार पर पहुँच गई मानव प्रजातियो ,वनस्पतियों  और बेजुबान जानवरों की बात हो।

आज स्मारकों के सामने सबसे बड़ा संकट आतंकों घटनाओं और युद्ध से  भी ज्यादा  शहरीकरण और विकास का है जिनकी चपेट मे अब तक हजारों स्मारक आ चुके हैं जिनका कहीं भी कोई दस्तावेजी करण नहीं था।क्योकि विकास के नाम पर हम धरोहरों को जान बूझकर नष्ट कर देते वह भी बिना वैकल्पिक उपाय अपनाए। इसका एक उदाहरण शेरशाह सूरी द्वारा निर्मित कोस मीनार का दिया जा सकता है जो की अब लगभग विलुप्त हिने की कगार पर हैं। ये वही ग्रांड ट्रंक रोड के निर्माता शेरशाह सूरी थे जिनके द्वारा जारी किया गया रुपया हम आज भी उपयोग कर रहें है, उन्होने ही हर कोस पर एक–एक मीनार दूरी नापने के लिए बनवाई थी।ये तो मात्र एक उदाहरण है जबकि अब तक नष्ट हो चुके लावारिस सरायों, दरवाजो,गढ़ी,मंदिरों, मस्जिदों, गुफाओं ब्रिटिश बंगलों आदि जिनकी आज तक गिनती भी नहीं की जा सकी है।

मोटे तौर पर ये सारी धरोहरें अमूर्त (जिनहे स्पर्श नहीं किया जा सकता) और मूर्त (जिन्हे स्पर्श किया जा सकता है) मे विभाजित हैं जिन्हे विश्व धरोहर का दर्जा प्रदान करने और सदस्य देशों के लिए संरक्षण संबंधी नियम बनाने का एवं नियंत्रण का दायित्व यूनेस्को  के पास है जिसके दुनिया के लगभग सभी देश सदस्य हैं। पूर्वजों से प्राप्त ऐसे महत्वपूर्ण धारहोर स्थलों की पहचान एवं संरक्षण की पहल संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को ने प्रारम्भ की थी बाद मे जिसे एक अंतर्राष्ट्रीय संधि जो कि विश्व सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर संरक्षण की बात करती है के रूप मे सन 1972  में लागू किया गया तथा विश्व की समस्त  धरोहरों/स्थलों को मुख्यतः तीन श्रेणियों प्राकृतिक सांस्कृतिक मिश्रित में सम्मिलित  किया गया।

विश्व धरोहर दिवस की शुरुआत 18 अप्रैल 1982  को हुई थी जब आईकोमास संस्था ने टयूनिशिया में अंतरराष्ट्रीय स्मारक और स्थल दिवस का आयोजन किया। इस कार्यक्रम में कहा गया कि विश्व भर  में समान  रूप से इस दिवस का आयोजन किया जाना चाहिए। इस प्रस्ताव को यूनेस्को के महासम्मेलन में भी अनुमोदित  कर दिया गया और इस प्रकार  नवम्बर 1983  से 18  अप्रैल को विश्व धरोहर दिवस के रूप में मनाने की घोषणा कर दी  गई। इसके  पूर्व  हर साल 18  अप्रैल को विश्व स्मारक और पुरातत्व स्थल दिवस के रुप में मनाया जाता था।

         हमारे देश मे विश्व धरोहर स्मारकों की  कुल संख्या 35 है जिसमे 27 सांस्कृतिक स्थल तथा 07 प्राकृतिक पुरास्थल तथा 01 मिश्रित श्रेणी का है। इस दृष्टि से हमारा राज्य महाराष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन मानचित्र मे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं जहां कुल चार, अजंता,एलोरा,एलीफेंटा गुफाएँ और क्षत्रपति शिवाजी टर्मिनस ( विक्टोरिया टर्मिनस) ,विश्व धरोहर का दर्जा प्राप्त कारीगरी के नायाब नमूने हैं। और यह भी महत्वपूर्ण है की सन 1983  मे देश मे सबसे पहले घोषित होने वाले विश्व धरोहर स्मारकों मे हमारे प्रदेश महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले मे स्थित अजंता एवं एलोरा भी शामिल था और संभवतः उस समय यह पहला अवसर था जब एक ही जिले मे दो स्थलों को विश्व विरासत का दर्जा प्राप्त हुआ हो।
 
प्रसंगवश उल्लेखनीय है की इसी महीने अप्रैल मे जब अजंता की पुनः खोज के  200 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं तब हम सभी लोगो की यह सामूहिक ज़िम्मेदारी है की विरासतों पर मंडरा रहे हर उस खतरे, को जिनसे उनको हानि पहुँच सकती है, को दूर करने के लिए सारे प्रयास करें। ताकि हम उन्हे आने वाली पीढ़ियों को सौंप सके अन्यथा हमरे मूक इतिहास की बोलती गवाही देने वाली ये विरासतें हमेशा के लिए खामोश हो जाएंगी।


अजंता गुफाओं की पुनःखोज के 200 वर्ष                             हाँ , अप्रैल का ही महीना था और साल था 1819 , जब ब्रिटिश भारतीय स...